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प्रेमचन्द की कहानियाँ 31

प्रेमचंद

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :155
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9792
आईएसबीएन :9781613015292

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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का इकतीसवाँ भाग


लाला नानकचन्द की शादी एक रईस घराने में हुई और तब धीरे-धीरे फिर वही पुराने उठने बैठनेवाले आने शुरू हुए। फिर वही मजलिसे जमीं और फिर वही सागर-ओ-मीना के दौर चलने लगे। संयम का कमजोर अहाता इन विषय-वासना के बटमारों को न रोक सका। हाँ, अब इस पीने-पिलाने में कुछ परदा रखा जाता है। और ऊपर से थोडी सी गम्भीरता बनाये रखी जाती है साल भर इसी बहार में गुजरा। नवेली बहू घर में कुढ़-कुढ़कर मर गई। तपेदिक ने उसका काम तमाम कर दिया। तब दूसरी शादी हुई।

मगर इस स्त्री में नानकचन्द की सौन्दर्य प्रेमी आंखों के लिए लिए कोई आकर्षण न था। इसका भी वही हाल हुआ। कभी बिना रोये कौर मुंह में नहीं दिया। तीन साल में चल बसी। तब तीसरी शादी हुई। यह औरत बहुत सुन्दर थी अच्छी आभूषणों से सुसज्जित उसने नानकचन्द के दिल में जगह कर ली एक बच्चा भी पैदा हुआ था और नानकचन्द गार्हस्थिक आनंदों से परिचित होने लगा। दुनिया के नाते रिश्ते अपनी तरफ खींचने लगे मगर प्लेग ने सारे मंसूबे धूल में मिला दिये। पतिप्राणा स्त्री मरी, तीन बरस का प्यारा लड़का हाथ से गया। और दिल पर ऐसा दाग छोड़ गया जिसका कोई मरहम न था। उच्छश्रृंखलता भी चली गई ऐयाशी का भी खात्मा हुआ। दिल पर रंजोगम छा गया और तबियत संसार से विरक्त हो गयी।

जीवन की दुर्घटनाओं में अकसर बड़े महत्व के नैतिक पहलू छिपे हुआ करते हैं। इन सइमों ने नानकचन्द के दिल में मरे हुए इन्सान को भी जगा दिया। जब वह निराशा के यातनापूर्ण अकेलेपन में पड़ा हुआ इन घटनाओं को याद करता तो उसका दिल रोने लगता और ऐसा मालूम होता कि ईश्वर ने मुझे मेरे पापों की सजा दी है धीरे-धीरे यह ख्याल उसके दिल में मजबूत हो गया। उफ मैंने उस मासूम औरत पर कैसा जुल्म किया कैसी बेरहमी की! यह उसी का दण्ड है। यह सोचते-सोचते ललिता की मायूस तस्वीर उसकी आंखों के सामने खड़ी हो जाती और प्यारी मुखड़ेवाली कमला अपने मरे हुए सौतेले भाई के साथ उसकी तरफ प्यार से दौड़ती हुई दिखाई देती। इस लम्बी अवधि में नानकचन्द को ललिता की याद तो कई बार आयी थी मगर भोग-विलास पीने-पिलाने की उन कैफियतों ने कभी उस खयाल को जमने नहीं दिया। एक धुंधला-सा सपना दिखाई दिया और बिखर गया। मालूम नहीं दोनो मर गयी या जिन्दा हैं। अफसोस! ऐसी बेकसी की हालत में छोड़कर मैंने उनकी सुध तक न ली। उस नेकनामी पर धिक्कार है जिसके लिए ऐसी निर्दयता की कीमत देनी पड़े।

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