कहानी संग्रह >> प्रेमचन्द की कहानियाँ 32 प्रेमचन्द की कहानियाँ 32प्रेमचंद
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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का बत्तीसवाँ भाग
डॉक्टर- मैं हूँ, जो कुछ देर हुई तुम्हारे पास आया था।
बुढ़िया ने बोली पहचानी, समझ गयी इनके घर के किसी आदमी पर बिपत पड़ी, नहीं तो इतनी रात गये क्यों आते; पर अभी तो बुद्धू ने मूठ चलाई नहीं। उसका असर क्योंकर हुआ, समझाती थी तब न माने। खूब फँसे। उठकर कुप्पी जलायी और उसे लिये बाहर निकली। डॉक्टर साहब ने पूछा- बुद्धू चौधरी सो रहे हैं। जरा उन्हें जगा दो।
बुढ़िया- न बाबू जी, इस बखत मैं न जगाऊँगी, मुझे कच्चा ही खा जायगा, रात को लाट साहब भी आवें तो नहीं उठता।
डॉक्टर साहब ने थोड़े शब्दों में पूरी घटना कह सुनायी और बड़ी नम्रता के साथ कहा कि बुद्धू को जगा दे। इतने में बुद्धू अपने ही आप बाहर निकल आया और आँखें मलता हुआ बोला- कहिए बाबू जी, क्या हुकुम है।
बुढ़िया ने चिढ़ कर कहा तेरी नींद आज कैसे खुल गयी, मैं जगाने गयी होती तो मारने उठता।
डॉक्टर- मैंने सब माजरा बुढ़िया से कह दिया है, इसी से पूछो।
बुढ़िया- कुछ नहीं, तूने मूठ चलायी थी, रुपये इनके घर की महरी ने लिये हैं, अब उसका अब-तब हो रहा है।
डॉक्टर- बेचारी मर रही है, कुछ ऐसा उपाय करो कि उसके प्राण बच जायँ !
बुद्धू- यह तो आपने बुरी सुनायी, मूठ को फेरना सहज नहीं है।
बुढ़िया- बेटा, जान जोखिम है, क्या तू जानता नहीं। कहीं उल्टे फेरनेवाले पर ही पड़े तो जान बचना ही कठिन हो जाय।
डॉक्टर- अब उसकी जान तुम्हारे ही बचाये बचेगी, इतना धर्म करो।
बुढ़िया- दूसरे की जान की खातिर कोई अपनी जान गढ़े में डालेगा?
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