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प्रेमचन्द की कहानियाँ 32

प्रेमचंद

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :173
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9793
आईएसबीएन :9781613015308

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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का बत्तीसवाँ भाग


डॉक्टर- तुम रात-दिन यही काम करते हो, तुम उसके दाँव-घात सब जानते हो। मार भी सकते हो, जिला भी सकते हो। मेरा तो इन बातों पर बिलकुल विश्वास ही न था, लेकिन तुम्हारा कमाल देख कर दंग रह गया। तुम्हारे हाथों कितने ही आदमियों का भला होता है, उस गरीब बुढ़िया पर दया करो।

बुद्धू कुछ पसीजा, पर उसकी माँ मामलेदारी में उससे कहीं अधिक चतुर थी। डरी, कहीं यह नरम हो कर मामला बिगाड़ न दे। उसने बुद्धू को कुछ कहने का अवसर न दिया। बोली- यह तो सब ठीक है, पर हमारे भी बाल-बच्चे हैं ! न जाने कैसी पड़े कैसी न पड़े। वह हमारे सिर आवेगी न? आप तो अपना काम निकाल कर अलग हो जायेंगे। मूठ फेरना हँसी नहीं है।

बुद्धू- हाँ बाबू जी, काम बड़े जोखिम का है।

डॉक्टर- काम जोखिम का है जो मुफ्त तो नहीं करवाना चाहता।

बुढ़िया- आप बहुत देंगे, सौ-पचास रुपये देंगे। इतने में हम कै दिन तक खायेंगे। मूठ फेरना साँप के बिल में हाथ डालना है, आग में कूदना है। भगवान् की ऐसी ही निगाह हो तो जान बचती है।

डॉक्टर- तो माता जी, मैं तुमसे बाहर तो नहीं होता हूँ। जो कुछ तुम्हारी मरजी हो वह कहो। मुझे तो उस गरीब की जान बचानी है। यहाँ बातों में देर हो रही है, वहाँ मालूम नहीं, उसका क्या हाल होगा।

बुढ़िया- देर तो आप ही कर रहे हैं, आप बात पक्की कर दें तो यह आपके साथ चला जाय। आपकी खातिर यह जोखिम अपने सिर ले रही हूँ दूसरा होता तो झट इनकार कर जाती। आपके मुलाहजे में पड़ कर जान-बूझ कर जहर पी रही हूँ।

डॉक्टर साहब को एक क्षण एक वर्ष जान पड़ रहा था। बुद्धू को उसी समय अपने साथ ले जाना चाहते थे। कहीं उसका दम निकल गया तो यह जा कर क्या बनायेगा। उस समय उनकी आँखों में रुपये का कोई मूल्य न था। केवल यही चिन्ता थी कि जगिया मौत के मुँह से निकल आये। जिस रुपये पर वह अपनी आवश्यकताएँ और घरवालों की आकांक्षाएँ निछावर करते उसे दया के आवेश ने बिलकुल तुच्छ बना दिया था। बोले- तुम्हीं बतलाओ, अब मैं क्या कहूँ, पर जो कुछ कहना हो झटपट कह दो।

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