लोगों की राय

कहानी संग्रह >> प्रेमचन्द की कहानियाँ 33

प्रेमचन्द की कहानियाँ 33

प्रेमचंद

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :100
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9794
आईएसबीएन :9781613015315

Like this Hindi book 7 पाठकों को प्रिय

165 पाठक हैं

प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का तैंतीसवाँ भाग


सारे दिन मानकी को यही पश्चात्ताप होता रहा। शाम को उससे न रहा गया। वह अपनी कहारिन को लेकर पैदल उस देवता के दर्शन को चली, जिसकी आत्मा को उसने दुःख पहुँचाया था।

संध्या का समय था। आकाश पर लालिमा छायी हुई थी। अस्ताचल की ओर कुछ बादल भी हो आए थे। सूर्यदेव कभी मेघ-पट में छिप जाते थे, कभी बाहर निकल आते थे। इस धूप-छाँह में ईश्वरचंद्र की मूर्ति दूर से कभी प्रभात की भाँति प्रसन्न-मुख और कभी संध्या की भाँति मलिन देख पड़ती थी। मानकी उसके निकट गयी, पर उसके मुख की ओर न देख सकी। उन आँखों में करुण वेदना थी। मानकी को ऐसा मालूम हुआ, मानो वह मेरी ओर तिरस्कारपूर्ण भाव से देख रही हैं। उसकी आँखों से ग्लानि और लज्जा के आँसू बहने लगे। वह मूर्ति के चरणों पर गिर पड़ी और मुँह ढाँपकर रोने लगी। मन के भाव द्रवित हो गए।

वह घर आयी, तो नौ बज गए थे। कृष्णचंद्र उसे देखकर बोले- अम्माँ आज आप इस वक्त कहाँ गयी थीं?

मानकी ने हर्ष से कहा- गयी थी तुम्हारे बाबूजी की प्रतिमा के दर्शन करने। ऐसा मालूम होता है, वह साक्षात खड़े हैं।

कष्णचंद्र- जयपुर से बनकर आयी है।

मानकी- पहले तो लोग उनका इतना आदर न करते थे।

कृष्णचंद्र- उनका सारा जीवन सत्य और न्याय की वकालत में गुजरा है। ऐसे महात्माओं की पूजा होती है।

मानकी- लेकिन उन्होंने वकालत कब की?

कृष्णचंद्र- हाँ, यह वकालत नहीं की, जो मैं और मेरे हजारों भाई कर रहे हैं, जिससे न्याय और धर्म का खून हो रहा है। उनकी वकालत उच्चकोटि की थी।

मानकी- अगर ऐसा है, तो तुम भी वही वकालत क्यों नहीं करते?

...Prev | Next...

<< पिछला पृष्ठ प्रथम पृष्ठ अगला पृष्ठ >>

विनामूल्य पूर्वावलोकन

Prev
Next
Prev
Next

अन्य पुस्तकें

लोगों की राय

No reviews for this book