कहानी संग्रह >> प्रेमचन्द की कहानियाँ 33 प्रेमचन्द की कहानियाँ 33प्रेमचंद
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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का तैंतीसवाँ भाग
कृष्णचंद्र- बहुत कठिन है। दुनिया का जंजाल अपने सिर लीजिए, दूसरों के लिए रोइए, दीनों की रक्षा के लिए लट्ठ लिये फिरिए, अधिकारियों के मुँह आइए, उनका क्रोध और कोप सहिए और इस कष्ट, अपमान और यंत्रणा का पुरस्कार क्या है? अपनी नवीन अभिलाषाओं की हत्या!
मानकी- लेकिन यश तो होता है।
कृष्णचंद्र- हाँ, यश होता है। लोग आशीर्वाद देते हैं।
मानकी- जब इतना यश मिलता है, तो तुम भी वही काम करो। हम लोग उस पवित्र आत्मा की और कुछ सेवा नहीं कर सकते तो उसी वाटिका को सींचते जायँ, जो उन्होंने अपने जीवन में इतने उत्सर्ग और भक्ति से लगायी? इससे उनकी आत्मा को शांति मिलेगी।
कृष्णचंद्र ने माता को श्रद्धामय नेत्रों से देखकर कहा- करूँ तो, मगर संभव है, तब यह टीम-टाम न निभ सके। शायद फिर वही पहले की-सी दशा हो जाय।
मानकी- कोई हरज नहीं। संसार में यश तो होगा। आज तो अगर धन की देवी भी मेरे सामने आवे, तो मैं आँखें न नीची करूँ।
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