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प्रेमचन्द की कहानियाँ 33

प्रेमचंद

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :100
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9794
आईएसबीएन :9781613015315

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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का तैंतीसवाँ भाग


स्त्री ने अविश्वास के भाव से कहा- मुझे तो डर लगता है कि कही यह विद्यार्थी भी तुम्हारे हाथ से न जाएं। न इधर के रहो, न उधर के। तुम्हारे भाग्य में तो लड़के पढ़ाना लिखा है, और चारों ओर से ठोकर खाकर फिर तुम्हें बूढ़े तोते रटाने पडेगें।

मोटे- तुम्हें मेरी योग्यता पर विश्वास क्यों नहीं आता?

स्त्री- इसलिए कि तुम वहां भी धूर्तता करोगे। मैं तुम्हारी धूर्तता से चिढ़ती हूं। तुम जो कुछ नहीं हो और नहीं हो सकते, वह क्यों बनना चाहते हो? तुम लीडर न बन सके, न बन सके, सिर पटककर रह गये। तुम्हारी धूर्तता ही फलीभूत होती है और इसी से मुझे चिढ़ है। मैं चाहती हूं कि तुम भले आदमी बनकर रहो। निष्कपट जीवन व्यतीत करो। मगर तुम मेरी बात कब सुनते हो?

मोटे- आखिर मेरा नायिका-ज्ञान कब काम आवेगा?

स्त्री- किसी रईस की मुसाहिबी क्यों नहीं कर लेते? जहां दो-चार सुन्दर कवित्त सुना दोगे। वह खुश हो जाएगा और कुछ न कुछ दे ही मारेगा। वैद्यक का ढोंग क्यों रचते हो!

मोटे- मुझे ऐसे-ऐसे गुर मालूम है जो वैद्यों के बाप-दादों को भी न मालूम होंगे। और सभी वैद्य एक-एक, दो-दो रुपये पर मारे-मारे फिरते हैं, मैं अपनी फीस पांच रुपये रक्खूंगा, उस पर सवारी का किराया अलग। लोग यही समझेगें कि यह कोई बडे वैद्य हैं नहीं तो इतनी फीस क्यों होती?

स्त्री को अबकी कुछ विश्वास आया बोली- इतनी देर में तुमने एक बात मतलब की कही है। मगर यह समझ लो, यहां तुम्हारा रंग न जमेगा, किसी दूसरे शहर को चलना पड़ेगा।

मोटे- (हंसकर) क्या मैं इतना भी नहीं जानता। लखनऊ में अडडा जमेगा अपना। साल-भर में वह धाक बांध दूंगा कि सारे वैद्य गर्द हो जाएं। मुझे और भी कितने ही मन्त्र आते हैं। मैं रोगी को दो-तीन बार देखे बिना उसकी चिकित्सा ही न करूंगा। कहूंगा, मैं जब तक रोगी की प्रकृति को भली भांति पहचान न लूं, उसकी दवा नहीं कर सकता। बोलो, कैसी रहेगी?

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