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प्रेमचन्द की कहानियाँ 33

प्रेमचंद

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :100
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9794
आईएसबीएन :9781613015315

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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का तैंतीसवाँ भाग


नियत समय पर जब सब लोग भोजन करने चले तो मारे आनंद के फूले न समाते थे। बारह की संख्या पूरी करना के लिए पाँच विद्यार्थियों को पाठशाला से ले लिया। सलाह हुई कि वेद-मंत्र गाते हुए घसीटे के घर चलें। शास्त्रीजी ने विद्यार्थियों को इस विषय में इतना अभ्यस्त कर दिया कि जो लोग शाला आ जाते वे संगीत सुनकर ही मुग्ध हो जाते थे। फिर उन्हें इस शाला से भक्ति हो जाती थी। इसी चाल से शास्त्रीजी ने अच्छी ख्याति प्राप्त की थी। इस वक्त भी विद्यार्थियों का संगीत सुनकर खड़े हो-होकर देखने लगे। एक दर्शक ने कहा, ''शास्त्रीजी के दम का जलूस है।''

दूसरा बोला- ''क्या बात है, जब से शास्त्रीजी आए, पाठशाला के भाग जाग गए।''

नुक्कड़ के समीप पहुँचकर मोटेराम ने चिंतामणि से कहा, ''देखो, कुछ प्रकाश है सामने!''

चिंता.- ''मुझे तो कोई प्रकाश नहीं दीखता।''

मोटे.- ''है क्यों नहीं, तुम्हें सूझता ही नहीं। गैस का हंडा जल रहा है। कुछ बोल-चाल सुनाई देती है न?''

चिंता.- ''क्या जाने, मुझे तो सन्नाटा-सा मालूम होता है।''

मोटे.- ''तुम्हारा सिर! मुझे तो आदमियों की बोलचाल साफ़ सुनाई देती है। लो पहुँच ही गए। जी चाहता है दौड़कर अंदर चला जाऊँ। जिस तरह विरह-पीड़ित नायक अपनी प्रेमिका के निकट पहुँच अधीर हो जाता है, उसी भाँति मेरा मन भी अधीर हो रहा है। मगर यह बात क्या है? यहाँ तो सचमुच सन्नाटा है। शायद घर होगा।''

चिंता.- ''द्वार खटखटाऊँ? मगर यहाँ तो ताला पड़ा हुआ है।''

मोटेराम ने पड़ोस के दुकानदार से पूछा तो उसने कहा- ''साँझ तक तो घर ही में थे। इस बखत की नहीं जानते। देखिए होंगे घर ही में।''

पं. मोटेराम ने इतने जोर से किवाड़ खटखटाए कि सारा घर हिल उठा, किंतु भीतर से कोई आवाज न आई।

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