कहानी संग्रह >> प्रेमचन्द की कहानियाँ 33 प्रेमचन्द की कहानियाँ 33प्रेमचंद
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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का तैंतीसवाँ भाग
अलगू ने कहा, ''ताला तोड़ डालूँ?''
मोटे.- ''नहीं-नहीं, ताला न तोड़ो। संभव है, सामग्री लेने बाजार गया हो।''
दोनों पंडित द्वार की चौखट पर जा बैठे। अन्य विद्यार्थी इधर-उधर टहलने लगे, मगर इस भाँति राह देखते-देखते पूरा एक घंटा हो गया तो चिंतामणि ने झुँझलाकर कहा, ''मुझे तो मालूम होता है, दुष्ट ने धोखा दिया।''
मोटे.- ''हाँ, अब तो मुझे भी संदेह होता है।''
चिंता.- ''इस समय दुष्ट मिल जाता तो गरदन दबा लेता। धूर्त! अबे ओ घसीटे बनिए! निकल बाहर! कहाँ मुँह छिपाए बैठा है?''
इस पर पाँचों विद्यार्थियों ने चिल्ला-चिल्लाकर घसीटे को दुष्ट, पापी, चांडाल कहना शुरू किया।
अलग- ''ससुर के मुँह में कालिख लगी हुई है।''
चिंता.- ''ईश्वर करे, इसका सर्वनाश हो जाए।''
भवानी- ''मरेगा तो इसका जनम छछूंदर का होगा।''
अलग- ''गधा होगा ससुर रेंकता फिरेगा।''
मोटेराम चुपचाप वैठे थे। मारे क्रोध, लज्जा और आत्मवेदना के उनका सिर नीचे झुका हुआ था। अंत में वह धीरे से उठे और बोले, ''तो अब चलना चाहिए।''
अलगू- ''कहिए तो इस घर में आग लगा दूँ?''
भवानी- ''पत्थर फेंका जाए।''
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