कहानी संग्रह >> प्रेमचन्द की कहानियाँ 34 प्रेमचन्द की कहानियाँ 34प्रेमचंद
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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का चौंतीसवाँ भाग
और मंजुला उसके मनोहरस्य को समझने में असमर्थ है। विमल ने अपनी साधना और सद्भावना से उसे अपनी ओर आकर्षित कर लिया है, इसमें सन्देह नहीं। वह एक नारी की गहरी अन्तर्दृष्टि से देख रही है कि विमल भी उसका उपासक बन बैठा है और जरा भी प्रोत्साहन पाने पर अपने को उसके चरणों पर डाल देगा। उसने बरसों से जो जिन्दगी बसर की है उसमें प्रेम नहीं है सेवा और कर्तव्य का दामन पकडक़र भी उसे अपनी अपूर्णता का ज्ञान होता रहता है। जिस पुरुष में उसका प्रेम नहीं है, न विश्वास है, उसके प्रति वह किसी तरह का नैतिक या धार्मिक बन्धन नहीं स्वीकार करती। वह अपने को स्वच्छन्द समझती है। चाहे समाज उसकी स्वच्छन्दता न माने, पर उसकी आत्मा इस विषय में अपने को आजाद समझती है; मगर विमल की नज़रों में आदर और भक्ति पाने का मोह उसमें इतना प्रबल है कि वह उस स्वच्छन्दता की भावना को सिर नहीं उठाने देती। वह विमल से संसर्ग की घनिष्ठता तो चाहती है; पर अपने आत्माभिमान की रक्षा करते हुए। इसके साथ ही विमल के पवित्र और निर्मल जीवन में वह दाग नहीं लगाना चाहती। उसने सोचा था, विमल को दवा का हल्का-सा घूँट पिलाकर वह स्वस्थ कर देगी। वह स्वस्थ होकर उसके मनोद्यान में आएगा, फूलों को देखकर प्रसन्न होगा, हरी-हरी दूब पर लेटेगा, पक्षियों का गाना सुनेगा। उससे वह इतना ही संसर्ग चाहती थी। दीपक के प्रकाश का आनन्द तो दीपक से दूर रहकर ही लिया जा सकता। उसे स्पर्श करके तो वह अपने को जला सकता है; मगर अब उसे मालूम हुआ कि दवा की वह घूँट बाधा को हरने के बदले एक दूसरा रोग पैदा कर गयी। विमल में निर्लेप होकर रहने की शक्ति न थी। वह जिस चीज की ओर झुकता था, तन-मन से उसी का हो जाता था और जब खिंचता था, तो मानो नाता ही तोड़ लेता था। उसके इस नये व्यवहार को मंजुला अपना अपमान समझती है। और मन यहाँ से उचाट हो जाता है।
आखिर एक दिन उसने विमल को पकड़ ही लिया था। मंजुला जानती थी, विमल रोज दरिया किनारे सैर करने जाता है। एक दिन उसने वहीं जा घेरा और अपना इस्तीफा उसके हाथ में रख दिया।
विमल के गले में जैसे फाँसी पड़ गयी। जमीन की ओर ताकता हुआ बोला- ऐसा क्यों?
‘इसलिए कि मैं अपने को इस काम के योग्य नहीं पाती।’
‘संस्था तो खूब चल रही है?’
‘फिर भी मैं यहाँ रहना नहीं चाहती।’
‘मुझसे कोई अपराध हुआ है?’
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