कहानी संग्रह >> प्रेमचन्द की कहानियाँ 34 प्रेमचन्द की कहानियाँ 34प्रेमचंद
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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का चौंतीसवाँ भाग
‘आप अपने दिल से पूछिए।’
विमल ने इस वाक्य का वह आशय समझ लिया, जो मंजुला की कल्पना से भी कोसों दूर था। उसके मुख का रंग उड़ गया, जैसे रक्त की गति बन्द हो गयी हो। इसका उसके पास कोई जवाब न था। ऐसा फैसला था जिसकी कहीं अपील न थी।
आहत स्वर में बोला- जैसी आपकी इच्छा। मुझ पर दया कीजिए।
मंजुला ने आर्द्र होकर कहा- तो मैं चली जाऊँ?
‘जैसे आपकी इच्छा!’
और वह जैसे गले का फन्दा छुड़ाकर भाग खड़ा हुआ। मंजुला करुण नेत्रों से उसे देखती रही, मानो सामने कोई नौका डूबी जा रही हो।
चाबुक खाकर विमल फिर सेवाश्रम की गाड़ी में जुत गया। कह दिया गया मंजुला देवी के पति बीमार थे, चली गयीं। काम-काजी आदमी प्रेम का रोग नहीं पालता, उसे कविता करने और प्रेम-पत्र लिखने और ठण्डी आहें भरने की कहाँ फुरसत? उसके सामने तो कर्तव्य है, प्रगति की इच्छा है, आदर्श है। विमल भी काम-धन्धे में लग गया। हाँ, कभी-कभी एकान्त में मंजुला की याद आ जाती थी और लज्जा से उसका मस्तक आप-ही-आप झुक जाता था। उसे हमेशा के लिए सबक मिल गया था। ऐसी सती-साध्वी के प्रति उसने कितनी बेहूदगी की!
तीन साल गुजर गये थे। गर्मियों के दिन थे। विमल अबकी मंसूरी की सैर करने गया हुआ था और एक होस्टल में ठहरा था। एक दिन बैण्ड स्टैण्ड के समीप खड़ा बैण्ड सुन रहा था कि बगल की एक बेंच पर मंजुला बैठी नजर आयी, आभूषणों और रंगों से जगमगाती हुई। उसके पास ही एक युवक कोट-पैण्ट पहने बैठा हुआ था। दोनों मुस्करा-मुस्कराकर बातें कर रहे थे। दोनों के चेहरे खिले, दोनों प्रेम के नशे में मस्त। विमल के मन में सवाल उठा, यह युवक कौन है? मंजुला का पति नहीं हो सकता। या संभव है, उसका पति ही हो। दम्पति में अब मेल हो गया हो। उसे मंजुला के सामने जाने का साहस न हुआ।
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