कहानी संग्रह >> प्रेमचन्द की कहानियाँ 34 प्रेमचन्द की कहानियाँ 34प्रेमचंद
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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का चौंतीसवाँ भाग
रानी ने यह सुना तो माथा पीटकर बोली- तुमने गजब कर दिया। आग लगा दी।
इन्दरमल- क्या करूँ, खुद पछताता हूँ, उस वक्त यही धुन सवार थी।
रानी- मुझे जिन बातों का डर था वह सब हो गईं। अब कौन मुंह लेकर अचलगढ़ जायेंगे।
इन्दरमल- मेरा जी चाहता है कि अपना गला घोंट लूँ।
रानी- गुस्सा बुरी बला हैं। तुम्हारे आने के बाद मैंने रार मचाई और खुद यही इरादा करके इन्दौर जा रही थी, रास्ते में तुम मिल गए।
यह बातें हो ही रही थीं कि सामने से बहेलियों और साँडनियों की एक लम्बी कतार आती हुई दिखाई दीं। साँड़नियों पर मर्द सवार थे। सुरमा लगी आँखों वाले, पेचदार जुल्फोंवाले। बहेलियों में हुस्न के जलवे थे। शोख निगाहें, बेधड़क चितवनें, यह उन नाच-रंग वालों का काफिला था जो अचलगढ़ से निराश और खिन्न चला आता था। उन्होंने रानी की सवारी देखी और कुंवर का घोड़ा पहचान लिया। घमण्ड से सलाम किया मगर बोले नहीं। जब वह दूर निकल गए तो कुंवर ने जोर से कहकहा मारा। यह विजय का नारा था। रानी ने पूछा- यह क्या कायापलट हो गई। यह सब अचलगढ़ से लौटे आते हैं और ऐन दशहरे के दिन?
इन्दरमल बड़े गर्व से बोले- यह पोलिटिकल एजेण्ट के इनकारी तार के करिश्मे हैं, मेरी चाल बिलकुल ठीक पड़ी।
रानी का सन्देह दूर हो गया। जरुर यही बात है यह इनकारी तार की करामात है। वह बड़ी देर तक बेसुध-सी जमीन की तरफ ताकती रही और उसके दिल में बार-बार यह सवाल पैदा होता था, क्या इसी का नाम राजहठ है। आखिर इन्दरमल ने खामोशी तोड़ी- क्या आज चलने का इरादा है कि कल?
रानी- कल शाम तक हमको अचलगढ़ पहुँचना है, महाराज घबराते होंगे।
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