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प्रेमचन्द की कहानियाँ 34

प्रेमचंद

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :146
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9795
आईएसबीएन :9781613015322

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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का चौंतीसवाँ भाग


ओरछे के बड़े-बड़े बुंदेले सूरमा यह घमंड-भरी वाणी सुनकर गरम हो उठे। फाग और डफ़ की तान के वदले ढोल की वीरध्वनि सुनाई देने लगी। हरदौल का अखाड़ा ओरछे के पहलवानों और फ़ेकैतों का सवसे बडा अड्डा था। संध्या को यहाँ सारे शहर के सूरमा जमा हुए। कालदेव और भालदेव बुंदेलों की नाक थे। सैकड़ों मैदान मारे हुए, यही दोनों पहलवान क़ादिरखाँ का घमंड चूर करने के लिए चुने गए। दूसरे दिन किले के सामने तालाब के किनारे बड़े मैदान में ओरछे के छोटे-बड़े जमा हुए। कैसे-कैसे सजीले अलबेले जवान थे-सिर पर खुशरंग बाँकी पगड़ी, माथे पर चंदन का तिलक, आँखों में मर्दानगी का सरूर, कमरों में तलवार। और कैसे-कैसे बूढ़े थे- तनी हुई मूँछें, सादी पर तिरछी पगड़ी, कानों से बँधी हुई दाढ़ियाँ, देखने में तो बूढ़े पर काम में जवान, किसी को कुछ न समझने वाले। उनकी मर्दाना चालढाल नौजवानों को लजाती थी। हर एक के मुँह से वीरता की बातें निकल रही थीं। नौजवान कहते थे- देखें आज ओरछे की लाज रहती है या नहीं। पर बूढ़े कहते- ओरछे की हार कभी नहीं हुई और न होगी। वीरों का यह जोश देखकर राजा हरदौल ने बड़े जोर से कह दिया था- ''खबरदार, बुंदेलों की लाज रहे या न रहे, पर उनकी प्रतिष्ठा में बल न पड़ने पावे। यदि किसी ने औरों को यह कहने का अवसर दिया कि ओरछे वाले तलवार से न जीते, तो धाँधली कर बैठे, वह अपने को जाति का शत्रु समझे।''

सूर्य निकल आए थे। एकाएक नगाड़े पर चोब पड़ी और आशा तथा भय ने लोगों के मन को उछालकर मुँह तक पहुँचा दिया। कालदेव और क़ादिरखाँ दोनों लंगोट कसे शेरों की तरह अखाड़े में उतरे और गले मिल गए। तब दोनों तरफ़ से तलवारें निकलीं और दोनों के बगलों में चली गईं। फिर बादल के दो टुकड़ों से बिजलियाँ निकलने लगीं। पूरे तीन घंटे तक यही मालूम होता था कि दो अंगारे हैं। हजारों आदमी खड़े तमाशा देख रहे थे और मैदान में आधी रात का-सा सन्नाटा छाया था। हाँ, जब कभी कालदेव कोई गिरहदार हाथ चलाता या कोई पेचदार वार बचा जाता, तो लोगों की गर्दनें आप ही आप उठ जातीं, पर किसी के मुँह से एक शब्द भी नहीं निकलता था, अखाड़े के अंदर तलवारों की खींचतान थी; पर दिखने वालों के लिए अखाड़े के बाहर मैदान में इससे भी बढ़कर तमाशा था। बार-बार जातीय प्रतिष्ठा के विचार से मन के भावों को रोकना और प्रसन्नता या दुःख का शब्द मुँह से वाहर न निकलने देना तलवारों के बार बचाने से अधिक कठिन काम था। एकाएक क़ादिरखां 'अल्लाहो अकबर' चिल्लाया, मानो बादल गरज उठा और उसके गरजते ही कालदेव के सिर पर बिजली गिर पड़ी।

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