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प्रेमचन्द की कहानियाँ 34

प्रेमचंद

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :146
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9795
आईएसबीएन :9781613015322

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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का चौंतीसवाँ भाग


मैंने अपना कँधा छुड़ाते हुए कहा, ''क्या करें साहब, अवकाश ही नहीं मिलता।'' बस, आपने चट एक बाज़ारी शेर पढ़ा-

तुम्हें गैरों से कब फुरसत
हम अपने गम से कब खाली,
चलो बस हो चुका मिलना
न तुम खाली न हम खाली?


मैंने हंस तो दिया - जो आदमी अपना लिहाज करे, उससे कोई कैसे रुखाई करे? फिर बड़े आदमियों से बिगाड़ करना भी नहीं चाहता, न जाने कब अपनी ग़रज़ लेकर उनके पास जाना पड़े, लेकिन मुझे उनकी यह बेतकल्लुफ़ी कुछ अच्छी न लगी। यों मैं न कोई तपस्वी हूँ न ज़ाहिद। अरसिक होना उस बाँकपन से भी बुरा है। शुष्क जीवन भी कोई जीवन है, जिसमें विनोद के लिए स्थान न हो? वन की शोभा हरे-भरे सरस वृक्षों से है, सूखे हुए ठूँठों से नहीं, लेकिन मैं चाहता हूँ आदमी जो कुछ करे छिपाकर करे। शराब पीना चाहते हो, पियो, मगर पियो एकांत में। इसकी क्या जरूरत कि शराब में मस्त होकर बहकते फिरो? रूप के उपासक बनना चाहते हो, बनो लेकिन इसकी क्या जरूरत है कि वेश्याओं को दाएँ-बाएँ बैठाए मोटर में अपने छैलपन का ढिंढोरा पीटते फिरो? फिर, रसिकता की भी एक उम्र होती है। जब लड़के जवान हो गए, लड़कियों की शादी हो गई, बाल पक चले, तो मेरे ख्याल में आदमी को कुछ गंभीर हो जाना चाहिए। आपका दिल अभी जवान है, बहुत अच्छी बात है, मैं तुम्हें इस पर बधाई देता हूँ वासना कभी बूढ़ी नहीं होती, मेरा तो अनुभव है कि उम्र के साथ-साथ वह भी प्रौढ़ होती जाती है, लेकिन इस उम्र में कुलेलें करना मुझे ओछापन मालूम होता है। सींग कटाकर बछड़ा बननेवाली मनोवृत्ति का मैं कायल नहीं। कोई किसी का क्या कर लेगा? लेकिन चार भले आदमी उँगली उठाएँ, ऐसा काम क्यों करो? तुम्हें भगवान ने संपन्न बनाया है, बहुत अच्छी बात है, लेकिन अपनी संपन्नता को इस विपन्न संसार में दिखाते फिरना, जो छुधा से व्याकुल हैं, उनके सामने रसगुल्ले उड़ाना, इसमें न तो रसिकता है, न आदमियत।

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