कहानी संग्रह >> प्रेमचन्द की कहानियाँ 34 प्रेमचन्द की कहानियाँ 34प्रेमचंद
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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का चौंतीसवाँ भाग
रसिकलाल की बड़ी लड़की का विवाह था। मथुरा से बारात आई थी। ऐसे ठाठ की बारात यहाँ शायद ही कभी आई हो। बड़ी धर्मशाला में जनवासा था। वर का पिता किसी रियासत का दीवान था। मैं भी बारातियों की सेवा-सत्कार में लगा हुआ था। एक हजार आदमी से कम न थे। इतने आदमियों का सत्कार करना हँसी नहीं है। यहाँ तो किसी बारात में सौ-पचास आदमी आ जाते हैं, तो उनकी भी अच्छी तरह खातिर नहीं हो पाती। फिर बारातियों के मिज़ाज का क्या कहना। सभी तानाशाह बन जाते हैं। कोई चमेली का तेल माँगता है, कोई आँवले का; कोई केशरजना, कोई शराब माँगता है; कोई अफीम! साबुन चाहिए, इत्र चाहिए। एक हजार आदमियों के खाने का प्रबंध करना कितना कठिन है। मैं समझता हूँ 20-25 हजार रुपयों के वारे-न्यारे हुए होंगे, लेकिन रसिकलाल के माथे पर शिकन न आई। वही बाँकपन था, वही विनोद, वही बेफ़िक्री। न झुँझलाना, न बिगड़ना। बारातियों की ओर से ऐसी-ऐसी बेहूदा फ़रमाइशें होती थीं कि हमें गुस्सा आ जाता है। पाव-आध-पाव भंग बहुत है, यह पसेरी-भर भंग लेकर क्या उसकी धूनी देंगे? जव सिनेमा के एक सौ अव्वल दर्जे के टिकटों की फ़रमायश हुई तो मुझसे न रहा गया। रसिकलाल को खूब डाँट बताई, और उसी क्रोध में जनवासे की ओर चला कि एक-एक को फटकारूँ। लड़के का ब्याह करने आए हैं या किसी भले आदमी की इज्जत बिगाड़ने? एक दिन बगैर सिनेमा देखे नहीं रहा जाता? ऐसे ही बड़े शौकीन हो तो जेब से पैसे क्यों नहीं खर्च करते? लेकिन रसिकलाल खड़े हँस रहे थे। भाई साहब, क्यों इतना बिगड़ रहे हो? ये लोग तुम्हारे मेहमान हैं, मेहमान दस जूते भी लगाए तो बुरा न मानिए। यह सब ज़िंदगी के तमाशे हैं। तमाशे में हम खुश होने जाते हैं, वहाँ रोना भी पड़े तो उसमें आनंद है। लपककर सिनेमाघर से सौ टिकट ला दीजिए, सौ-दो-सौ रुपए का मुँह न देखिए।
मैंने मन में कहा, मुफ्त का धन बटोरा है तो लुटाओ और नाम लूटो। यह कोई सत्कार नहीं है कि मेहमान की गुलामी की जाए। मेहमान उसी वक्त तक मेहमान है, जब वह मेहमान की तरह रहे। जब वह रोब जमाने लगे, बेइज्जती करने पर आमादा हो जाए, तो वह मेहमान नहीं, शैतान है।
इसके तीन महीने बाद सुना कि रसिकलाल का दामाद मर गया, वही जिसकी नई शादी हुई थी। सिविल सर्विस के लिए इंग्लैंड गया हुआ था। वहीं न्यूमोनिया हो गया। यह खबर सुनते ही मुझे रोमांच हो आया। उस युवक की सूरत आँखों में दौड़ गई। कितना सौम्य, कितना प्रतिभाशाली लड़का था और मरा जाकर इंग्लैंड में कि घर वाले देख भी न सके और उस लड़की की क्या दशा होगी, जिसका सर्वनाश हो गया? अभी हाथ की मेंहदी भी तो न छूटी थी। चुंदरी भी तो अभी मैली नहीं हुई।
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