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प्रेमचन्द की कहानियाँ 36

प्रेमचंद

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :189
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9797
आईएसबीएन :9781613015346

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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का छत्तीसवाँ भाग


मेरा दिल इतना प्रभाव ग्रहण करने वाला तो नहीं है, लेकिन इस दहकान औरत के बेलौस अंदाज़े-गुफ्तगू उसकी सादगी और ममता ने मुझ पर जादू-मंतर का-सा अमल किया। उसके हालात से मुझे अनेक प्रकार की दिलचस्पी हो गई। पूछा, ''तुम्हारे बेवा हुए कितने दिन हो गए?'' औरत की आँखें नम हो गईं। अपने आँसुओं को छुपाने के लिए बच्चे के गाल को अपनी आँखों से लगाकर वोली, ''अभी तो कल छ: महीने हुए हैं बाबूजी। भगवान की मर्ज़ी में आदमी का क्या बस! भले-चंगे हल लेकर लौटे, एक लोटा पानी पिया, क़ै हुई, बस आँखें बंद हो गईं। न कुछ कहा, न सुना। मैं समझी, थके हैं, सो रहे हैं। जब खाना खाने को उठाने लगी तो बदन ठंडा। तब से बाबूजी! घास छीलकर पेट पालती हूँ और बच्चों को खिलाती हूँ। खेती मेरे मान की न थी। बैल-बछिए बेचकर उन्हीं के किरिया-करम में लगा दिए। भगवान तुम्हारे इन दोनों गुलामों को जिलावे। मेरे लिए यही बहुत हैं।''

मैं मौक़ा और महल समझता हूँ और मनोविज्ञान में भी दखल रखता हूँ लेकिन उस वक्त मुझ पर ऐसी आर्द्रता हुई कि मैं अश्रुपूर्ण हो गया और जेब से पाँच रुपए निकालकर उस औरत की तरफ़ हाथ बढ़ाते हुए कहा, ''मेरी तरफ़ से ये बच्चों के मिठाई खाने के लिए लो! मुझे मौक़ा मिला तो फिर कभी आऊँगा।'' यह कहकर मैंने बच्चे के रुखसारों को उँगली-से छू दिया। माँ एक कदम पीछे हटकर वोली, ''नहीं बाबू जी, यह रहने दीजिए। मैं ग़रीब हूँ लेकिन भिखारिन नहीं हूँ।''

''यह भीख नहीं है। बच्चों की मिठाई खाने के लिए है।''

''नहीं बाबू जी।''

''मुझे अपना भाई समझकर ले लो।''

''नहीं बाबूजी, जिससे ब्याह हुआ उसकी इज्जत तो मेरे ही हाथ है। भगवान तुम्हारा भला करे। अब चले जाओ, नहीं, देर हो जाएगी।''

मैं दिल में इतना लज्जित कभी न हुआ था। जिन्हें मैं जाहिल, अविवेकी और बेखबर समझता था, उसी तबके की एक मामूली औरत में यह खुद्दारी, यह कर्त्तव्यपालन, यह ईश्वर पर विश्वास! अपने मूर्खता के एहसास से मेरा दिल जैसे पददलित हो गया। अगर शिक्षा यथार्थत: आत्मिक संस्कृति है और महज आला डिग्रियाँ नहीं, तो यह औरत तालीम की ऊँची सीढ़ी पर पहुँची हुई है।

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