कहानी संग्रह >> प्रेमचन्द की कहानियाँ 36 प्रेमचन्द की कहानियाँ 36प्रेमचंद
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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का छत्तीसवाँ भाग
''छोटे-छोटे वच्चे घर पर हैं। कैसे रुक जाती? मर्द तो भगवान के घर चला गया।''
आँधी का ऐसा रेला आया कि मैं शायद दो-तीन क़दम आगे खिसक गया। गर्दो-गुबार की एक धौंकनी-सी मुँह पर लगी। उस औरत का क्या हशर हुआ, मुझे खबर नहीं। मैं फिर वहीं खड़ा रह गया। फ़लसफ़े (दर्शनशास्त्र) ने कहा, ''इस औरत के लिए ज़िंदगी में क्या राहत है? कोई टूटा-फूटा झोपड़ा होगा, दो-तीन फ़ाक़ाकश बच्चे। ऐसी बेकसी में मौत का क्या गम? मौत तो उसे मोक्ष का कारण होगी। मेरी हालत और है। ज़िंदगी अपनी तमाम दिलफ़रेबियों और रंगीनियों के साथ मेरी नाज़बरदारी (नाज उठाना) कर रही है। हौसले हैं, इरादे हैं, मैं उसे क्योंकर खतरे में डाल सकता हूँ?''
मैंने फिर घोड़े के अयालों में मुँह छुपा लिया, शुतुरमुर्ग की तरह, जो खतरे से बचने की कोई राह न पाकर बालू में सर छुपा लेता है। वह आँधी की आखिरी साँस थी। उसके बाद क्रमश: जोर कम होने लगा। यहाँ तक कि कोई पंद्रह मिनट में धुंध साफ़ हो गया। न गर्दो-गुबार का निशान था; न हवा के झोकों का। हवा में एक सुखद शीतलता आ गई थी। अभी मुश्किल से पाँच बजे होंगे। सामने एक पहाड़ी थी। उसके दामन में एक छोटा-सा मौजा था। मैं ज्यों ही उस गाँव में पहुँचा, वही औरत एक बच्चे को गोद में लिए मेरी तरफ़ आ रही। मुझे देखकर उसने पूछा, ''तुम कहाँ रह गए थे? मैं डरी कि तुम रास्ता न भूल गए हो। तुम्हें ढूँढने जा रही थी।''
मैंने उसकी इंसानियत से मुतास्सिर होकर कहा, ''मैं इसके लिए तुम्हारा बहुत उपकृत हूँ। आँधी का ऐसा रेला आया कि मुझे रास्ता न सूझा। मैं वहीं खड़ा हो गया। यही तुम्हारा गाँव है? यहाँ से गजनपुर कितनी दूर होगा?''
''बस कोई धाप भर समझ लो। रास्ता बिलकुल सीधा है। कहीं दाहिने-बाएँ मुड़ियो नहीं। सूरज डूबते-डूबते पहुँच जाओगे।''
''यही तुम्हारा बच्चा है?''
''नहीं। एक और इससे बड़ा है। जब आँधी आई तो दोनों नंबरदार की चौपाल में जाकर बैठे थे कि झोपड़ियाँ कहीं उड़ न जाएँ। जबसे आई हूँ यह मेरी गोद से नहीं उतरता। कहता है, 'तू फिर कहीं भाग जाएगी।' बड़ा शैतान है। बड़ा लड़कों में खेल रहा है। मेहनत-मजदूरी करती हूँ बाबूजी। इनको पालना तो है। अव मेरे कौन बैठा हुआ है, जिस पर टेक करूँ? घास लेकर वेचने गई थी। कहीं जाती हूँ मन इन बच्चों में लगा रहता है।''
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