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प्रेमचन्द की कहानियाँ 36

प्रेमचंद

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :189
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9797
आईएसबीएन :9781613015346

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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का छत्तीसवाँ भाग


एक आवाज- शराब पीने से बदन में फुर्ती आ जाती।

एक शंका- सरकार अधर्म से रुपया कमाती है। उसे यह उचित नहीं। अधर्मी के राज्य में रहकर प्रजा का कल्याण कैसे हो सकता है?

दूसरी शंका- पहले दारू पिलाकर पागल बना दिया। लत पड़ी, तो पैसे की चाट हुई। इतनी मजूरी किसको मिलती है कि रोटी-कपड़ा भी चले, और दारू-शराब भी उड़े? या तो बाल-बच्चों को भूखों मारो या चोरी करो, जुआ खेलो और बेइमानी करो। शराब की दूकान क्या है, हमारी गुलामी का अड्डा है।

चौधरी के उपदेश सुनने के लिए जनता टूटती थी, लोगों को खड़े होने की जगह न मिलती। दिनों-दिन चौधरी का मान बढ़ने लगा। उनके यहाँ नित्य पंचायतों और राष्ट्रोन्नति की चर्चा रहती। जनता को इन बातों में बड़ा आनन्द और उत्साह होता। उसके राजनीतिक ज्ञान की वृद्धि होती। वह अपना गौरव और महत्व समझने लगी, उसे अपनी सत्ता का अनुभव होने लगा। निरंकुशता और अन्याय पर अब उसकी त्योरियाँ चढ़ने लगीं। उसे स्वतन्त्रता का स्वाद मिला। घर की रुई, घर का सूत, घर का कपड़ा, घर का भोजन, घर की अदालत; न पुलिस का भय, न अमलों की खुशामत, सुख और शांति से जीवन व्यतीत करने लगी। कितनों ही ने नशेबाजी छोड़ दी, और सद्भावों की एक लहर-सी दौड़ने लगी।

लेकिन भगतजी इतने भाग्यशाली न थे। जनता को दिनों-दिन उनके उपदेशों से अरुचि होती जाती थी। यहाँ तक कि बहुधा उनके श्रोताओं में पटवारी, चौकीदार, मुदर्रिस और इन्हीं कर्मचारियों के मित्रों के अतिरिक्त और कोई न होता था। कभी-कभी बड़े हाकिम भी आ निकलते और भगतजी का बड़ा आदर सत्कार करते। जरा देर के लिए भगत जी के आँसू पुँछ जाते। लेकिन क्षण-भर का सम्मान आठों पहर के अपमान की बराबरी कैसे करता? जिधर निकल जाते, उधर ही उँगलियाँ उठने लगतीं। कोई कहता, खुशामदी टट्टू है; कोई कहता, खुफिया पुलिस का भेदी है। भगतजी अपने प्रतिद्वंद्वी की बड़ाई अपनी लोक-निंदा पर दाँत पीस-पीसकर रह जाते थे। जीवन में यह पहला ही अवसर था कि उन्हें सबके सामने नीचा देखना पड़ा। चिरकाल से जिस कुल-मर्यादा की रक्षा करते आए थे, और जिस पर अपना सर्वस्व अर्पण कर चुके थे, वह धूल में मिल गई। यह दाहमय चिंता उन्हें एक क्षण भर के लिए चैन न लेने देती। नित्य यही समस्या सामने रहती कि अपना खोया हुआ सम्मान क्योंकर पाऊँ, अपने प्रतिपक्षी को क़्योंकर पद-दलित करूँ, उसका गरूर तोड़ूँ।

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