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प्रेमचन्द की कहानियाँ 36

प्रेमचंद

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :189
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9797
आईएसबीएन :9781613015346

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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का छत्तीसवाँ भाग


अंत में उन्होंने सिंह को उसकी माँद में ही पछाड़ने का निश्चय किया।

संध्या का समय था। चौधरी के द्वार पर एक बड़ी सभा हो रही थी। आस-पास के गाँवों के किसान भी आ गए थे, हजारों आदमियों की भीड़ थी। चौधरी उन्हें स्वराज्य-विषयक उपदेश दे रहे थे। बारम्बार भारतमाता के जय-जयकार की ध्वनि उठती थी। एक ओर स्त्रियों का जमाव था। चौधरी ने उपदेश समाप्त किया, और अपनी जगह पर बैठे। स्वयंसेवकों से स्वराज्य-फंड के लिए चंदा जमा करना शुरू किया कि इतने में भगतजी न जाने किधर से लपके हुए आये और श्रोताओं के सामने खड़े होकर उच्च स्वर में बोले- ‘‘भाइयो, मुझे यहाँ देखकर अचरज मत करो। मैं स्वराज्य का विरोधी नहीं हूँ। ऐसा पतित कौन प्राणी होगा, जो स्वराज्य का निंदक हो, लेकिन इसके प्राप्त करने का वह उपाय नहीं है, जो चौधरी ने बतलाया है, और जिस पर तुम लोग लट्टू हो रहे हो। जब आपस में फूट और रार है, तो पंचायतों से क्या होगा? जब विलासिता का भूत सिर पर सवार है, तो नशा कैसे छूटेगा, मदिरा की दूकानों का बहिष्कार कैसे होगा? सिगरेट, साबुन, मोजे, बनियान, अद्धी, तंजेब से कैसे पिंड छूटेगा? जब रोब और हुकूमत की लालसा बनी हुई है, तो सरकारी मदरसे कैसे छोड़ोगे, विधर्मी शिक्षा की बेड़ी से कैसे मुक्त हो सकोगे? स्वराज्य लेने का केवल एक ही उपाय है, और वह है, आत्मसंयम। यही महौषधि तुम्हारे समस्त रोगों को समूल नष्ट करेगी। आत्मा को बलवान बनाओ, इंद्रियों को साधो, मन को वश में करो, तभी तुममें भ्रातृ भाव पैदा होगा, तभी भोग-विलास से मन हटेगा, तभी नशेबाजी का दमन होगा। आत्मबल के बिना स्वराज्य कभी प्राप्त न होगा, स्वार्थसेवा सब पापों का मूल है, यही तुम्हें अदालतों में ले जाती है, यही तुम्हें विधार्थी शिक्षा का दास बनाए हुए है। इस पिशाच को आत्मबल से मारो, फिर तुम्हारी कामना पूरी हो जायगी। सब जानते हैं, मैं 40 साल से अफीम का सेवन करता हूँ। आज से अफ़ीम को गऊ का रक्त समझूँगा। चौधरी से मेरी तीन पीढ़ियों की अदावत है। आज से चौधरी मेरे भाई हैं। आज से मुझे या मेरे घर के किसी प्राणी को घर के कते से सूत से बुने हुए कपड़े के सिवा कुछ और पहनते देखो, तो मुझे जो दंड चाहो, दो। बस मुझे यही कहना है, परमात्मा हम सबकी इच्छा पूरी करें।’’

यह कहकर भगतजी घर की ओर चले कि चौधरी दौड़कर उनके गले से लिपट गए। तीन पुश्तों की अदावत एक क्षण में शांत हो गई।

उस दिन से चौधरी और भगत साथ-साथ स्वराज्य का उपदेश करने लगे। उनमें गाढ़ी मित्रता हो गई और यह निश्चय करना कठिन है कि दोनों में जनता किसका अधिक सम्मान करती है।

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