लोगों की राय

कहानी संग्रह >> प्रेमचन्द की कहानियाँ 36

प्रेमचन्द की कहानियाँ 36

प्रेमचंद

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :189
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9797
आईएसबीएन :9781613015346

Like this Hindi book 3 पाठकों को प्रिय

297 पाठक हैं

प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का छत्तीसवाँ भाग


जाडे के दिन थे। डिप्टी हरिविलास बाल-बच्चों के साथ दौरे पर थे। बड़े दिन की तातील हो गई थी, इसीलिए तीनों लड़के भी आए हुए थे। बडा-शिवविलास लाहौर के मेडिकल कालेज में पढ़ता था। मझला-सतविलास इलाहाबाद में कानून पढ़ता था और छोटा श्रीविलास लखनऊ के ही एक स्कूल का विद्यार्थी था। शाम हो रही थी। डिप्टी साहब अपने तम्बू के सामने एक पेड़ के नीचे कुरसी पर बैठे हुए थे। इलाके के कई जमींदार भी मौजूद थे।

एक मुसलमान महाशय ने कहा- ''हजूर आजकल ताल में चिड़ियाँ खूब हैं। शिकार खेलने का अच्छा मौका है।''

दूसरे महाशय बोले- हजूर जिस दिन चलने को कहें, बेगार ठीक कर लिए जाएँ। दो तीन डोंगियाँ भी जमा कर ली जाएँ।

''क्या अभी तक आप लोग बेगार लेते ही जाते हैं?''

''जी हाँ, इसके बगैर काम कैसे चलेगा। मगर हाँ, अब मारपीट बहुत करनी पड़ती है।''

एक ठाकुर साहब बोले- ''जब से गाँव के मनई बसरा में मजदूर हो के गए तब से कोऊ का मिजाजै नहीं मिलत। बात तक तो सुनत नहीं हैं। ई लड़ाई हमका मटियामेट कै दिहेस।''

शिवविलास- ''आप' लोग मजूरी भी तो बहुत कम देते हैं।''

ठाकुर- ''हजूर पहले दिनभरे के दुइ पैसा देत रहेन, अब तो चार देइत हैं तीनों पर कोऊ बिना रार गारी खाये बात नहीं सुनत है।''

शिवविलास- ''खत? चार पैसे तो आप मज़दूरी देते हैं और चाहते हैं कि आदमियों को गुलाम बना लें। शहरों में कोई मज़दूर आठ आने से कम में नहीं मिल सकता।''

मुसलमान महाशय ने कहा- ''हजूर बजा फ़रमाते हैं। चार पैसे में तो एक वक्त की रोटियाँ भी नहीं चल सकतीं। मगर यहाँ की रियाआ सख्ती की ऐसी आदी हो गई है कि हम चाहें आठ आने ही क्यों न दें पर बिला सख्ती किए मुखातिब ही नहीं होती। हाँ, यह तो बतलाइए हजूर, यह आजकल क्या हवा फिर गई है कि जहाँ देखिए वहीं मदरसे बंद होते जाते हैं। सुनता हूँ बड़े-बड़े कालिज भी टूट रहे हैं। इससे तो तालीम का बड़ा नुकसान होगा।''

...Prev | Next...

<< पिछला पृष्ठ प्रथम पृष्ठ अगला पृष्ठ >>

विनामूल्य पूर्वावलोकन

Prev
Next
Prev
Next

अन्य पुस्तकें

लोगों की राय

No reviews for this book