कहानी संग्रह >> प्रेमचन्द की कहानियाँ 36 प्रेमचन्द की कहानियाँ 36प्रेमचंद
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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का छत्तीसवाँ भाग
बाबू हरिविलास ने समझा था कि इस्तीफ़ा मंजूर होने में कुछ देर लगेगी, लेकिन दूसरे ही दिन तार द्वारा मंजूरी आ गई। उनकी जगह पर एक महाशय नियुक्त हो गए। हरिविलास ने बड़ी खुशी से चार्ज दिया, किंतु शाम होते-होते उनकी यह खुशी ग़ायब हो गई और अनेक चिंताओं ने आ घेरा। बाजार के कई सौ रुपए बाक़ी थे, नौकरों का वेतन भी बाकी पड़ा हुआ था, बँगले का केराया 6 महीने से न दिया गया था, हलवाई का हिसाब-किताब चुकाना था, ग्वाले के कुछ रुपए आते थे। इधर वह इजलास पर बैठे हुए चार्ज दे रहे थे, उधर उनकी कोठी के द्वार पर लेनदारों की भीड़ लगी हुई थी। वह चार्ज देकर लौटे तो यह समूह देखकर उनका दिल बैठ गया। यों वह कुछ हाल और कुछ बकाया के रुपए अपनी सुविधा के अनुसार दे दिया करते थे, लेकिन आज जब हाल और बकाया दोनों ही चुकाना पड़ा तो यह रक़म इस तरह बढ़ी जैसे साफ़ फर्श को हटा देने से नीचे गर्द का एक ढेर दिखाई देने लगता है। उन्हें अब तक यह अनुमान ही न हुआ था कि मैं इतने रुपयों का देनदार हूँ। सेविंग बैंक की सारी बचत इसी फुटकर हिसाब के चुकाने में समाप्त हो गई। अब घोड़े, टमटम आदि की भी जरूरत न थी। उन्हें नीलाम करके हाथ में कुछ रुपए कर लेना चाहते थे। दूसरे दिन प्रातःकाल जब यह चीज़ें नीलाम होने लगीं तो वह यह देख हृदयविदारक दृश्य को सहन न कर सके। हताश होकर घर में गए तो उनकी आँखें सजल थीं। सुमित्रा ने उन्हें दुःखी देखकर सहृदयतापूर्ण भाव से कहा- ''व्यर्थ दिल इतना छोटा करते हो। रंज करने की कोई बात नहीं। यह तो और खुशी की बात है कि जिस काम के करने में अधर्म था, उससे गला छुट गया। अब तुम्हें किसी पर अन्याय करने के लिए कोई मजबूर तो न करेगा। भगवान किसी-न-किसी तरह बेड़ा पार लगावेंगे ही। अपने भाई-बंदों पर अन्याय करते तो उसका दोष, पाप हमारे ही बाल-बच्चों पर न पड़ता। भगवान को कुछ अच्छा करना था तभी तो उसने तुम्हारे मन में यह बात डाली।''
इन बातों से हरिविलास को कुछ तसकीन हुई। सुमित्रा पहले इस्तीफ़ा देने पर राजी न होती थी पर पति को मानसिक कष्ट से निवृत्त करने की इच्छा ने उसके धैर्य और संतोष को सजग कर दिया था।
हरिविलास ने सुमित्रा की ओर श्रद्धाभाव से देखकर कहा- ''जानती हो कितनी तकलीफ़ें उठानी पड़ेगी।''
सुमित्रा- ''तकलीफ़ों से क्या डरना। धर्म-रक्षा के लिए आदमी सब कुछ सह लेता है। हमें भी तो आखिर ईश्वर के दरबार में जाना है। उसको कौन-सा मुँह दिखाते।''
हरिविलास- ''क्या बताऊँ मुझे तो इस वैज्ञानिक शिक्षा ने कहीं का न रखा। ईश्वर पर श्रद्धा ही नहीं रही। यद्यपि मैंने इन्हीं भावों से प्रेरित होकर इस्तीफ़ा दिया है पर मुझमें यह सजीव और चैतन्य भक्ति नहीं है, मुझे चारों ओर अंधकार ही अंधकार दिखता है। लड़के अभी तक अपने को सँभालने के योग्य नहीं हुए। शिवविलास को साल-भर भी और पढ़ा सकता तो वह घर सँभाल लेता। संतविलास को अभी तीन साल तक सँभालने की जरूरत है और बेचारे श्रीविलास की तो अभी कोई गिनती ही नहीं। अब यह बेचारे अधर में ही रह जाएँगे। मालूम नहीं, मन में मुझे क्या समझते हों।''
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