कहानी संग्रह >> प्रेमचन्द की कहानियाँ 36 प्रेमचन्द की कहानियाँ 36प्रेमचंद
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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का छत्तीसवाँ भाग
सुमित्रा- ''अगर उन्हें ईश्वर ने बुद्धि दी होगी तो अब वह तुम्हें अपना पिता समझने के बदले देवता समझने लगेंगे।''
रात का समय था। शिवविलास और उनके दोनों भाई बैठे हुए वार्तालाप कर रहे थे। शिवविलास ने कहा- ''आजकल दादा की दशा देखकर यही जी चाहता है कि गृहस्थी के जंजाल में न पड़ें। कल इस्तीफ़ा मंजूर हुआ है तब से उनका चेहरा ऐसा उदास हो गया है कि देखकर करुणा आती है। कई बार इच्छा हुई कि चलकर उन्हें तस्कीन दूँ लेकिन उनके सामने जाते हुए स्वयं मेरी आँखें सजल हो जाती हैं। आखिर हमीं लोगों की चिंता उन्हें सता रही है? नहीं तो उन्हें अपनी क्या चिंता थी? चाहें तो किसी स्कूल या कॉलेज में अध्यापक हो सकते हैं। दर्शन और अर्थशास्त्र में बहुत कुशल हैं।''
संतविलास- ''आपने मेडिकल कॉलेज से अपना नाम नाहक कटवा लिया। यह विभाग तो बुरा न था। आप सरकारी नौकरी न करते, घर बैठकर तो काम कर सकते थे। दादा से भी न पूछा। वह सुनेंगे तो उन्हें बहुत रंज होगा।''
शिवविलास -''इसीलिए तो मैंने अब तक उनसे कहा नहीं और फिर मौका भी नहीं मिला। डॉक्टरी का विभाग कितना ही अच्छा हो, लेकिन मैंने जो संकल्प कर लिया है उस पर स्थिर हूँ। क्यों, तुम कुछ मदद कर सकोगे?''
श्रीविलास- वह देखिए मियाँ घोड़े अस्तबल से निकले। अब कल से किसी दूसरे कोचवान के पाले पडेंगे, मारते-मारते भुरकस निकाल लेगा। टूटी टमटम भी सटर-पटर करती हुई चली।
संतविलास- ''मैं तो परीक्षा के पहले शायद आपकी कुछ मदद न कर सकूँ। उसके बाद मुझसे जो काम चाहें, ले सकते हैं।''
शिवविलास- ''एम.ए. से क्यों तुम्हें इतना प्रेम है?
श्रीविलास- ''एम.ए. का अर्थ है मास्टर ऑफ ऐस'।''
संतविलास- ''यह मेरी बहुत पुरानी अभिलाषा है और अब लक्ष्य के इतना समीप आकर मुझसे नहीं हटा जाता।''
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