कहानी संग्रह >> प्रेमचन्द की कहानियाँ 36 प्रेमचन्द की कहानियाँ 36प्रेमचंद
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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का छत्तीसवाँ भाग
शाहजादा ने उन्मत्त भाव से कहा- लैला, तुम्हारी एक तान पर अपना सबकुछ निसार कर सकता हूँ। मैं शौक का गुलाम था, लेकिन तुमने दर्द का मजा चखा दिया।
लैला फिर गाने लगी; लेकिन आवाज काबू में न थी, मानो वह उसका गला ही न था।
लैला ने डफ कंधे पर रख लिया और अपने डेरे की ओर चली। श्रोता अपने-अपने घर चले। कुछ लोग उसके पीछे-पीछे उस वृक्ष तक आये, जहाँ वह विश्राम करती थी। जब वह अपनी झोंपड़ी के द्वार पर पहुँची, तब सभी आदमी विदा हो चुके थे। केवल एक आदमी झोंपड़ी से कई हाथ पर चुपचाप खड़ा था।
लैला ने पूछा- तुम कौन हो?
नादिर ने कहा- तुम्हारा गुलाम नादिर!
लैला- तुम्हें मालूम नहीं कि मैं अपने अमन के गोशे में किसी को नहीं आने देती?
नादिर- यह तो देख ही रहा हूँ।
लैला- फिर क्यों बैठे हो?
नादिर- उम्मीद दामन पकड़े हुए है।
लैला ने कुछ देर के बाद फिर पूछा- कुछ खाकर आये हो?
नादिर- अब तो न भूख है, न प्यास।
लैला- आओ, आज तुम्हें गरीबों का खाना खिलाऊँ। इसका मजा भी चख लो।
नादिर इनकार न कर सका। आज उसे बाजरे की रोटियों में अभूतपूर्व स्वाद मिला। वह सोच रहा था कि विश्व के इस विशाल भवन में कितना आनंद है। उसे अपनी आत्मा में विकास का अनुभव हो रहा था।
जब वह खा चुका तब लैला ने कहा- अब जाओ। आधी रात से ज्यादा गुजर गयी।
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