कहानी संग्रह >> प्रेमचन्द की कहानियाँ 36 प्रेमचन्द की कहानियाँ 36प्रेमचंद
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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का छत्तीसवाँ भाग
गवर्नमेंट लाखों रुपए कृषि-सुधारों पर खर्च करती है। नई-नई तहक़ीक़ातें और ईजादें होती हैं। डाइरेक्टर, इंस्पेक्टर, सब मौजूद और हालात में कोई इस्ताह, कोई बड़ा परिवर्तन नहीं। यहाँ मदरसों में कुत्ते लोटते हैं। जब मदरसे में पहुँच जाता हूँ तो मुदर्रिस को खाट पर ऊँघने की हालत में लेटे पाता हूँ। बड़ी भाग-दौड़ से दस-बीस लड़के जोड़े जाते हैं। जिस क़ौम पर जड़ता ने इस हद तक अधिकार कर लिया हो, उसका भविष्य इंतिहा दर्जा निराशाजनक है। अच्छे-अच्छे तालीमयाफ्ता आदमियों को अतीत की याद में आँसू बहाते देखता हूँ। माना कि एशिया के द्वीप-समूह में आर्य धर्म-प्रचारकों ने मज़हब की रूह फूँकी थी। यह भी मान लिया कि किसी जमाने में आस्ट्रेलिया भी आर्य तहज़ीब का उपकृत था, लेकिन इस अतीत-पूजा से क्या हासिल? आज तो पश्चिम दुनिया का शिक्षा का पथ-प्रदर्शक है। नन्हा-सा इंग्लैंड आधी पृथ्वी पर हावी है। अपनी व्यवसाय की बदौलत बेशक मसारिब ने दुनिया को एक नया पैग़ामे-अमल अता किया है और जिस क़ौम में इस पैग़ाम पर अमल करने की कुव्वत नहीं है, उसका भविष्य अंधकारपूर्ण है। जहाँ आज भी एकांत निवासी अर्द्धनग्न फ़कीरों की महत्ता के राग अलापे जाते हैं, जहाँ आज भी पेड़ और पत्थर की इबादत होती है, जहाँ आज भी ज़िंदगी के हर एक विभाग में मज़हब घुसा हुआ है, उसकी अगर यह हालत है, तो ताज्जुब का कोई मुक़ाम नहीं। मैं इन्हीं विचारों में डूबा हुआ चला जा रहा था। एकाएक ठंडी हवा का एक झोंका जिस्म में लगा तो मैंने सर ऊपर उठाया। पूर्व की तरफ आसमान धूल-धूसरित हो रहा था। क्षितिज गर्दो-गुबार के पर्दे में छुप गया था। आँधी की अलामत (चिह्न) थी। मैंने घोड़े को तेज किया, लेकिन लमहा-ब-लमहा गुबार का पर्दा विशाल और विस्तृत होता जाता था। और मेरा रास्ता भी पूरब ही की तरफ था, गोया मैं तनहा तूफ़ान का मुक़ाबला करने दौड़ा जा रहा था। हवा तेज हो गई, वह गर्दे-गुबार सर पर आ पहुँचा और एकाएक मैं गर्द के समंदर में डूब गया। हवा इतनी तेज थी कि कई बार मैं घोड़े से गिरते-गिरते बचा। वह सरसराहट और गड़गड़ाहट थी कि ईश्वर रक्षा करे! गोया फ़ितरत ने आँधी में तूफ़ान की रूह डाल दी है। दस-बीस हज़ार तोपें एक साथ छूटें, तब भी इतनी भयंकर आवाज़ न पैदा होती। मारे गर्द के कुछ न सूझता था। यहाँ तक कि रास्ता भी नज़र न आता था। उफ्फ! एक क़यामत थी, जिसकी याद से आज भी कलेजा काँप जाता है। मैं घोड़े की गर्दन से चिपट गया और उसके अयालों (लंबे बालों) में मुँह छुपा लिया। कंकड़ गर्द के साथ उड़कर मुँह पर इस तरह लगते थे, जैसे कोई कंकरियों को पिचकारी में भरकर मार रहा हो। एक अजीब दहशत मुझ पर व्याप्त हो गई। किसी दरख्त के उखड़ने की आवाज़ कानों में आ जाती तो पेट में मेरी आँतें तक सिमट जातीं, कहीं कोई दरख्त पहाड़ से मेरे ऊपर गिरे तो यहीं रह जाऊँ। तूफ़ान में ही बड़े-बड़े टीले भी तो टूट जाते हैं। कोई ऐसा टीला लुढ़कता हुआ आ जाए तो बस खात्मा है, हिलने की भी तो गुंजाइश नहीं। पहाड़ी रास्ता कुछ सुझाई देता नहीं। एक क़दम दाहिने-बाएँ हो जाऊँ तो एक हजार फ़ीट गहरे खड्ड में पहुँच जाऊँ। अजीब संकट में फंसा था। कहीं शाम तक तूफ़ान जारी रहा तो मौत ही है। रात को कोई दरिंदा आकर सफ़ाया कर देगा। दिल पर बेअख्तियार भावावेश, रोदन का आधिक्य हुआ। मौत भी आई तो इस हालत में कि लाश का भी पता न चले। उफ्फ! कितनी जोर से बिजली चमकी है कि मालूम हुआ एक बरछा सीने के अंदर घुस गया।
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