कहानी संग्रह >> प्रेमचन्द की कहानियाँ 36 प्रेमचन्द की कहानियाँ 36प्रेमचंद
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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का छत्तीसवाँ भाग
अचानक झन-झन की आवाज़ सुनकर मैं चौंक पड़ा। इस अर्राहट में भी झन-झन की आवाज़ साफ़ सुनाई दे रही थी, जैसे कोई, साँडनी दौड़ी आ रही हो। साँडनी पर कोई सवार तो होगा ही, मगर उसे रास्ता क्योंकर सूझ रहा है! कहीं साँडनी एक क़दम भी इधर या उधर हो जाए तो बच्चा पाताल लोक में पहुँच जाएँ। कोई जमींदार होगा। मुझे देखकर शायद पहचाने भी नहीं; चेहरे पर मनों गर्द पड़ी हुई है, मगर है बला का हिम्मत वाला।
एक लमहे में झन-झन की आवाज क़रीब आ गई। फिर मैंने देखा कि एक जवान औरत सर पर एक खींची रखे क़दम बढ़ाती चली आ रही है। एक गज के फ़ासले से भी उसका सिर्फ़ धुँधला-सा अक्स नज़र आया। वह औरत होकर अकेली मर्दानावार चली जा रही है; न आँधी का खौफ़ है, न टूटने वाले दरख्तों का अंदेशा, न चट्टानों के गिरने का गम; गोया यह भी कोई रोज़मर्रा का मामूली वाक़िया है। मुझे दिल में गैरत का अहसास कभी इतना तीव्र न हुआ था।
मैंने जेब से रूमाल निकालकर मुँह पोंछा और उससे बोला, ''ओ औरत! गजनपुर यहाँ से कितनी दूर है?'' मैंने पूछा तो बुलंद लहजे में, मगर आवाज़ दस गज न पहुँची। औरत ने कोई जवाब न दिया। शायद उसने मुझे देखा ही नहीं।
मैंने चीखकर पुकारा, ''औ औरत! जरा ठहर जा। गजनपुर यहाँ से कितनी दूर है?''
औरत रुक गई। उसने मेरे क़रीब आकर, मुझे देखकर, जरा सर झुकाकर कहा, ''कहाँ जाओगे? ''
''गजनपुर कितनी दूरी है?''
''चले आओ। आगे हमारा गाँव है, उसके बाद गजनपुर है।''
''तुम्हारा गाँव कितनी दूर है?''
''वह क्या आगे दिखाई देता है !''
''तुम इस आँधी में कहीं रुक क्यों नहीं गई? ''
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