कहानी संग्रह >> प्रेमचन्द की कहानियाँ 37 प्रेमचन्द की कहानियाँ 37प्रेमचंद
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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का सैंतीसवाँ भाग
‘हाय ग़जब, जयगढ़ी फ़ौज ख़न्दकों तक पहुँच गयी, या खुदा! इन जांबाजों पर रहम कर, इनकी मदद कर। कलदार तोपों से कैसे गोले बरस रहे हैं, गोया आसमान के बेशुमार तारे टूट पड़ते हैं। अल्लाह की पनाह, हुमायूं दरवाजे पर गोलों की कैसी चोटें पड़ रही हैं। कान के परदे फ़टे जाते हैं। काश दरवाजा टूट जाता! हाय मेरा असकरी, मेरे जिगर का टुकड़ा, वह घोड़े पर सवार आ रहा है। कैसा बहादुर, कैसा जांबाज, कैसी पक्की हिम्मत वाला! आह, मुझ अभागे कलमुंहे को मौत क्यों नही आ जाती! मेरे सर पर कोई गोला क्यों नहीं आ गिरता! हाय, जिस पौधे को अपने जिगर के खून से पाला, जो मेरी पतझड़ जैसी ज़िन्दगी का सदाबहार फूल था, जो मेरी अंधेरी रात का चिराग, मेरी ज़िन्दगी की उम्मीद, मेरी हस्ती का दारोमदार, मेरी आरजू की इन्तहा था, वह मेरी आंखों के सामने आग के भंवर में पड़ा हुआ है, और मैं हिल नहीं सकता। इस कातिल जंजीर को क्योंकर तोड़ दूं? इस बाग़ी दिल को क्योंकर समझाऊं? मुझे मुंह में कालिख लगाना मंजूर है, मुझे जहन्नुम की मुसीबतें झेलना मंजूर है, मैं सारी दुनिया के गुनाहों का बोझ अपने सर पर लेने को तैयार हूँ, सिर्फ इस वक्त मुझे गुनाही करने की, वफ़ा के पैमाने को तोड़ने की, नमकहराम बनने की तौफ़ीक दे! एक लम्हे के लिए मुझे शैतान के हवाले कर दे, मैं नमक हराम बनूंगा, दग़ाबाज बनूंगा पर क़ौमफ़रोश नहीं बन सकता!
‘आह, ज़ालिम सुरंगें उड़ाने की तैयारी कर रहे हैं। सिपहसालार ने हुक्म दे दिया। वह तीन आदमी तहखाने की तरफ़ चले। जिगर कांप रहा है, जिस्म कांप रहा है। यह आख़िरी मौका है। एक लमहा और, बस फिर अंधेरा है और तबाही। हाय, मेरे ये बेवफ़ा हाथ-पांव अब भी नहीं हिलते, जैसे इन्होंने मुझसे मुंह मोड़ लिया हो। यह खून अब भी गरम नहीं होता। आह, वह धमाके की आवाज हुई, खुदा की पनाह, जमीन काँप उठी, हाय असकरी, असकरी, रुख़सत, मेरे प्यारे बेटे, रुख़सत, इस जालिम बेरहम बाप ने तुझे अपनी वफ़ा पर कुर्बान कर दिया! मैं तेरा बाप न था, तेरा दुश्मन था! मैंने तेरे गले पर छुरी चलयी। अब धुआं साफ़ हो गया। आह वह फ़ौज कहां है जो सैलाब की तरह बढ़ती आती थी और इन दीवारों से टकरा रही थी। ख़न्दकें लाशों से भरी हुई हैं और वह जिसका मैं दुश्मन था, जिसका क़ातिल, वह बेटा, वह मेरा दुलारा असकरी कहां है, कहीं नजर नहीं आता....आह....।’
5. वफा की देवी
माघ का महीना, सुबह का समय, हरिद्वार में गंगा का किनारा, स्नान का मेला, सामने की पहाड़ियाँ सुबह की सुनहरी किरणों में नहाई खड़ी हैं। यात्रियों की इतनी भीड़ है कि कंधे से कंधा छिलता है। जगह-जगह साधु-संन्यासियों और कीर्तनियों की टोलियाँ बैठी हुई हैं। इस समय सांगली के कुँअर साहब और उनकी रानी स्नान करने आए हैं। उनके साथ उनकी छह वर्ष की लड़की भी है। कुँअर साहब के सिर पर जयपुरी पगड़ी, नीची अचकन, अमृतसरी जूते, बड़ी-बड़ी मूछें, गठीला शरीर। रानी का रंग गेहुँआ, शरीर नाजुक, गहनों से सजी हुई। लड़की भी गहने पहने हुए है। कई सिपाही, प्यादे उनके साथ भाला-बल्लम लिए, वर्दियाँ पहने चले आ रहे हैं। कई सेवक भी हैं।
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