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प्रेमचन्द की कहानियाँ 37

प्रेमचंद

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :200
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9798
आईएसबीएन :9781613015353

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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का सैंतीसवाँ भाग


महात्माजी ने ये पाँच बरस इसी कुटिया में बिताए हैं। इंदिरा यात्रा के कष्ट सहन करने के योग्य हो गई है इसलिए अब साधु तीर्थयात्रा करने के लिए निकलते हैं। भक्तजन उन्हें बिदा करने के लिए आते हैं। एक भक्त को कुटिया सौंपकर महात्मा इंदिरा के साथ तीर्थयात्रा के लिए चल देते हैं।

बरसों तक महात्माजी तीर्थस्थानों की यात्रा करते रहते हैं। कभी बदरीनाथ जाते हैं कभी केदारनाथ, कभी द्वारका कभी रामेश्वरम, कभी मथुरा, कभी काशी, कभी पुरी। दोनों प्रत्येक स्थान पर मंदिरों में कीर्तन करते हैं और भक्तों को आध्यात्मिक आनन्द से सराबोर कर देते हैं। अब महात्माजी इंदिरा को शास्त्रों और वेदों का भी सदुपदेश देते हैं। जब महात्माजी ध्यानमग्न हो जाते हैं तो इंदिरा प्रायः वेदों का अध्ययन करती है।

एक दिन महात्माजी और इंदिरा दोनों एक गाँव में जा पहुँचते हैं। यह गाँव मुसलमानों का है। एक हफ्ते से प्लेग फैला हुआ है। लोग गाँव के बाहर झोंपड़ियाँ डाले पड़े हैं। महात्माजी एक वृक्ष के नीचे आसन जमाते हैं और प्लेगग्रस्त लोगों का उपचार करते हैं। इंदिरा भी महिलाओं की सेवा में व्यस्त हो जाती है। जड़ी-बूटियाँ खोजना, दवाएँ बनाना, मरीजों को उठाना-बैठाना, उनके बच्चों के लिए खाने-पीने की व्यवस्था करना उन दोनों का नित्य कर्म है। यहाँ तक कि महात्माजी को प्लेग हो जाता है और वे उसी वृक्ष के नीचे पड़ जाते हैं। गाँव के सभी स्त्री-पुरुष और आसपास के देहात के लोग महात्माजी की सेवा-शुश्रूषा के लिए आते हैं लेकिन महात्माजी की दशा बिगड़ती जाती है और एक दिन वे इंदिरा को बुलाकर ईश्वर-भजन और जनसाधारण की सेवा का उपदेश देकर ठाकुरजी के चरणों का ध्यान करते हुए समाधि ले लेते हैं। गाँव में कोहराम मच जाता है। महात्माजी की अर्थी धूमधाम और गाजे-बाजे के साथ निकलती है। एक भजन मंडली भी साथ है। गाँव की परिक्रमा करने के पश्चात् उसी वृक्ष की छाया में उनकी छतरी बनती है।

इस समय इंदिरा की आयु बीस-इक्कीस वर्ष है और उसके चेहरे पर ऐसा तेज है कि देखने वालों की आँखें झुक जाती हैं। उसका भरा-पूरा शरीर हर प्रकार का कष्ट सहन करने का अभ्यस्त हो गया है। गाँव के लोगों की इच्छा है कि वह उसी गाँव में रहे मगर अब उससे अपने उपकारी का बिछोह सहन नहीं होता। जिस गाँव में उस पर यह कष्ट आन पड़ा उसमें वह अब नहीं रह सकती। वह हृदय को इस बात से सांत्वना देना चाहती है कि जो ईश्वरेच्छा थी वही हुआ, लेकिन उसे किसी प्रकार सन्तोष नहीं होता। अन्ततः एक दिन वह सबसे बिदा लेकर निकल पड़ती है। उसकी कमर में कटार छिपी है, हाथ में तम्बूरा और कमंडल तथा कंधे पर मृगछाला है।

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