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प्रेमचन्द की कहानियाँ 37

प्रेमचंद

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :200
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9798
आईएसबीएन :9781613015353

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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का सैंतीसवाँ भाग


वह गाँव-गाँव और नगर-नगर में ईश्वर के भजन सुनाती और जनता के हृदय में भक्ति के दीप जलाती घूमती है। वह जिस नगर में जा पहुँचती है, वहाँ बात की बात में हजारों आदमी आ जाते हैं। उसकी सवारी के लिए सर्वोत्तम साधन प्रस्तुत किए जाते हैं लेकिन वह प्रदर्शन और बनावट को तुच्छ समझती हुई किसी मंदिर के सामने वृक्ष की छाया में ठहरती है। उसकी आँखों की निश्छल अदाओं में वह आकर्षण है कि लोग उसके मुँह से एक-एक शब्द सुनने के लिये व्याकुल रहते हैं। उसके दर्शन करते ही बड़े-बड़े ऐयाश और मनचले उसके समक्ष श्रद्धा से सिर झुका देते हैं। इंदिरा को सूफी कवियों की कविताएँ बहुत पसन्द हैं। वह मीरा, कबीर आदि के दोहों को अत्यन्त रुचि से पढ़ती और उन्हीं के भजन गाती है। तुलसी और सूरदास के पदों से भी उसे प्रेम है। समकालीन कवियों में से जिसकी कविताएँ उसे सर्वाधिक प्रिय हैं, वह हरिहर नाम का एक कवि है। वह उसके गीतों को पढ़कर मतवाली हो जाती है। उसके हृदय में उसका विशेष सम्मान है। वह चाहती है कि कहीं हरिहर से भेंट हो जाती तो वह उसके चरणों को चूम लेती।

जरवल रियासत का प्रमुख नगर, पथरीला क्षेत्र, साफ सुथरी सड़कें, साफ सुथरे आदमी, वैभवशाली महल, एक अत्यन्त सुन्दर चौक, चारों ओर प्रकाश में नहाई हुई दुकानें, बीच में एक पार्क, पार्क में फव्वारा; उसी फव्वारे के सामने खड़ी इंदिरा तम्बूरे पर भजन गा रही है। हजारों लोग तल्लीन खड़े हैं। जाती हुई मोटर कारें रुक जाती हैं और उन पर से उतर-उतरकर रईस लोग गाना सुनने लगते हैं। खोमचे वाले रुक जाते हैं और खोमचा लिए भजन सुनने लगते हैं। इंदिरा अपने प्रिय कवि हरिहर का एक अध्यात्म में डूबा हुआ पद गा रही है। उसकी रसीली धुन सबको मस्त कर रही है।

कई बरस हुए हरिहर एक मालदार रईस था, काव्य-रसिक, दार्शनिक चिन्तन में डूबा हुआ और आध्यात्मिकता में रंगा हुआ। अपने शानदार महल को छोड़कर एक झोंपड़ी में बैठा अध्यात्म और दर्शन की भावनाओं को कविता और गीतों के आकर्षक रूप में अभिव्यक्त किया करता था। अध्यात्म की वास्तविकताएँ उसके मनोमस्तिष्क में जाकर काव्यात्मक चमक-दमक से सुसज्जित हो जाती थीं। बैठे-बैठे पूरी रात बीत गई है और वह अपने विचारों में मस्त है। खाने-पीने, कपड़े-लत्ते की चिन्ता नहीं। उसकी दृष्टि में जगत् स्वप्न है, केवल इच्छाओं की मृगतृष्णा। उसकी दृष्टि में इसकी कोई वस्तु ऐसी नहीं कि मानव उसमें मन लगाए। वह अपनी सम्पत्ति की कोई परवाह नहीं करता, कामकाज पर लेशमात्र भी ध्यान नहीं देता। व्यापारी लोग बार-बार उससे मिलने आते हैं लेकिन वह अपने आनन्दकानन से बाहर नहीं निकलता। हाँ, यदि कोई फटेहाल आ जाता है तो तत्काल आकर उसे अतिथिशाला में ले जाता है। उसका समस्त वैभव गरीबों के लिए न्यस्त है, कभी गरीबों को कम्बल बाँटता है कभी अनाज। कोई भूखा भिखारी उसके द्वार से निराश नहीं लौटता। परिणाम यह होता है कि वह कर्ज में डूब जाता है। कर्ज देने वाले नालिश करते हैं, उस पर डिग्री होती है। हरिहर अपना एकान्त छोड़कर कभी मुकदमे की पैरवी करने नहीं जाता। उसकी सम्पत्ति कुड़क हो रही थी और वह अपनी झोंपड़ी में बैठा सितार पर वह पद गा रहा था जो उसने अभी-अभी लिखा था। बनाव-सजाव की वस्तुएँ उसके महल से निकालकर नीलाम कर दी जाती हैं, उसे तनिक भी दुःख नहीं। तब उसका महल नीलाम कर दिया जाता है और वह इसी प्रकार निस्पृह बना रहता है।

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