लोगों की राय

कहानी संग्रह >> प्रेमचन्द की कहानियाँ 37

प्रेमचन्द की कहानियाँ 37

प्रेमचंद

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :200
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9798
आईएसबीएन :9781613015353

Like this Hindi book 3 पाठकों को प्रिय

158 पाठक हैं

प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का सैंतीसवाँ भाग


एक बहुत बड़ा रईस आकर इस महल पर अधिकार जमा लेता है। हरिहर के पास अब भी विस्तृत इलाका है। वह चाहे तो फिर भव्य महल बनवा सकता है, मगर उसे सम्पत्ति से प्यार नहीं। वह हरेक गाँव में घूम-घूमकर अपनी आसामियों को जमींदारी के अधिकार प्रदान कर देता है, यहाँ तक कि उसके सभी एक सौ एक गाँव स्वतन्त्र हो जाते हैं। वह जिस गाँव में जा पहुँचता है, लोग उसका स्वागत करने दौड़ते हैं और उसके चरणों की धूल मस्तक पर लगाते हैं। उसके लिए हर प्रकार की सुविधाएँ प्रस्तुत की जाती हैं लेकिन वह गाँव के बाहर किसी वृक्ष की छाया में टिक जाता है और जंगली फल खाकर सो रहता है। अन्ततः सम्पत्ति की चिन्ता से मुक्त होकर वह फिर सन्तोष के साथ अपने आनन्दकानन में आ बैठता है।

आज उसके हर्ष की कोई सीमा नहीं है। उसकी कुटिया में अब भी कितनी ही फालतू चीजें हैं जिन्हें उसकी सौन्दर्यप्रियता ने एकत्र कर रखा है। चित्रकला और कारीगरी के इन अजूबों को इकट्ठा करके वह एक ढेर लगा देता है और उसमें आग लगा देता है। उसका सितार और तम्बूरा और डफ, मूर्तियाँ, मृगछालाएँ, अध्यात्म और दर्शन की किताबें, सब उस ढेर में जलकर राख हो जाती हैं और वह मुस्कराता खड़ा उन वस्तुओं को राख होते हुए देखता है।

शाम हो गई है। शहर के चौक में इंदिरा अपने तम्बूरे पर एक पद गा रही है। हजारों आदमी इकट्ठा हैं। बड़े-बड़े रईस और अमीर तल्लीन खड़े हैं। वह लुभावना गीत सुनकर हरिहर चौंक जाता है और कान लगाकर सुनता है और तब लपककर भीड़ में पीछे खड़ा हो जाता है। इंदिरा पद गा रही है जिसकी एक-एक तान उसके हृदय पर चोट करती है। आज हरिहर को अपनी रचनाओं के गाम्भीर्य, दर्द और प्रभाव का आभास होता है। वह आश्चर्य की मूर्ति बना खड़ा रहता है। यहाँ तक कि गाना समाप्त हो जाता है, लोग विदा हो जाते हैं और इंदिरा भी वहाँ से चली जाती है, मगर अभी तक हरिहर वहीं विचारों में डूबा हुआ बिना हिले-डुले मूरत बना खड़ा है। जब बिल्कुल सन्नाटा छा जाता है तो उसे अपने आसपास की चुप्पी का आभास होता है। वह एक-दो आदमियों से इंदिरा का पता पूछना चाहता है, मगर झिझक के कारण नहीं पूछता। वह विवश होकर अपनी कुटिया में लौट जाता है और प्रेम का पहला गीत लिखता है। वह व्याकुलता की दशा में पूरी रात काटता है और दूसरे दिन संध्याकाल फिर चौक की ओर जाता है।

इंदिरा आज भी चौक में गा रही है, भीड़ कल से भी कहीं अधिक है मगर क्या मजाल कोई हिल भी सके। हरिहर भी बुत बना हुआ सुनता है और जब आधे घंटे के बाद इंदिरा चल देती है तो वह उसके पीछे हो लेता है। भक्तों की अजगर जैसी लम्बी पंक्ति साथ में है। इंदिरा कुटिया के पास पहुँचकर सब लोगों को विदा कर देती है, केवल हरिहर उससे कुछ दूरी पर चला आ रहा है। अपनी कुटिया में पहुँचकर इंदिरा पानी भर लाती है और तब ठाकुरजी को भोग लगाकर स्वयं भी खाती है। फिर धरती पर पड़ रहती है।

...Prev | Next...

<< पिछला पृष्ठ प्रथम पृष्ठ अगला पृष्ठ >>

विनामूल्य पूर्वावलोकन

Prev
Next
Prev
Next

अन्य पुस्तकें

लोगों की राय

No reviews for this book