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प्रेमचन्द की कहानियाँ 37

प्रेमचंद

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :200
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9798
आईएसबीएन :9781613015353

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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का सैंतीसवाँ भाग


इंदिरा के कीर्तन से राजा साहब जरवल इतने प्रसन्न होते हैं कि उसे पाँच गाँव माफ कर देते हैं। इंदिरा उनके पाँवों पर गिरकर कृतज्ञता प्रकट करती है।

राजकुमार अपनी नाव सजाता है और इंदिरा को नदी में घुमाने के लिए ले जाता है। इंदिरा इस अवसर की प्रतीक्षा में है कि राजकुमार से हरिहर की सिफारिश करके उसे राजकवि के रूप में प्रतिष्ठित करा दे। इसलिए वहाँ से मन उचट जाने और हरिहर का बिछोह असहनीय होने पर भी वह जाने का नाम नहीं लेती। नदी की सैर में शायद वह अवसर हाथ आ जाए, इसलिए वह इस प्रस्ताव को प्रसन्नता से स्वीकार कर लेती है। नाव लहरों पर खेल रही है। इंदिरा हरिहर का एक पद गाने लगती है। सहसा उसे किनारे पर खड़ा हरिहर दिखाई दे जाता है। उसके चेहरे से निराशा ऐसे बरस रही है मानो यह बिछोह स्थायी हो।

इस प्रेम के पद से राजकुमार का दिल बेसुध हो जाता है। उसके सब्र का बाँध टूट जाता है। वह इंदिरा के समक्ष अपने आकुल-व्याकुल हृदय की कथा कह सुनाता है। वह अपना हृदय उसे दे बैठता है। अब इंदिरा को पता चलता है कि वह एक सुनहरे जाल में फँस गई है, अब हरिहर का नाम मुँह पर लाना कहर हो जाएगा, राजकुमार तत्काल हरिहर के लहू का प्यासा हो जाएगा। वह मन में पछताती है कि बेकार में राजकुमार का निमन्त्रण स्वीकार किया। यह हवस का पहला कोड़ा है जो उस पर पड़ा। अब वह यह भी समझने लगी है कि यद्यपि राजकुमार उसके सामने भिखारी बना खड़ा है मगर वास्तव में वह उसकी कैद में है।

वह कहती है, ‘राजकुमार, मैं दीन-हीन औरत हूँ, इस योग्य नहीं कि तुम्हारी रानी बनूँ। तुम बदनाम हो जाओगे और आश्चर्य नहीं कि राजा साहब और तुम्हारी माताजी भी तुमसे रुष्ट हो जाएँ। इसका परिणाम अच्छा नहीं होगा। मैं तुम्हें कष्ट में डालना नहीं चाहती।’

राजकुमार, ‘मैं तुम्हारे लिए सिंहासन को ठोकर मार दूँगा। इंदिरा, मुझे किसी की खुशी या नाराजगी की परवाह नहीं है। मैं तुम्हारे लिए सब कुछ करने को प्रस्तुत हूँ।’

इंदिरा बहाना करती है कि उसने संन्यास-व्रत धारण कर लिया है और यदि उसने संकल्प तोड़ा तो उन महात्माजी को कितना कष्ट होगा जिन्हें वह अपना गुरु मानती है। उसका यह काम उन्हें परलोक में भी चैन से नहीं रहने देगा। वह राजकुमार का सम्मान करती है लेकिन उसके लिए प्यार करना निषिद्ध है और वह अपने संकल्प को तोड़ नहीं सकती।

राजकुमार, ‘इंदिरा, तुम्हें मुझ पर तनिक भी दया नहीं आती?’

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