कहानी संग्रह >> प्रेमचन्द की कहानियाँ 37 प्रेमचन्द की कहानियाँ 37प्रेमचंद
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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का सैंतीसवाँ भाग
इंदिरा, ‘अपने संकल्प को तोड़कर मैं जीवित नहीं रह सकती।’
राजकुमार, ‘ये सब बहाने हैं इंदिरा! क्या मैं मान लूँ कि तुम्हारे हृदय में किसी अन्य के लिए स्थान है?’
इंदिरा, ‘मैंने आपसे कह दिया, मैं संन्यासिनी हूँ।’
राजकुमार, ‘यह तुम्हारा आखिरी फैसला है?’
इंदिरा, ‘हाँ, आखिरी।’
निराशा की दशा में राजकुमार अपनी कमर से तलवार निकालकर अपने सीने में घोंपना चाहता है। इंदिरा तेजी से उसका हाथ पकड़ लेती है।
राजकुमार, ‘मुझे मर जाने दो इंदिरा। जब मैं तुम्हें पा नहीं सकता तो जिन्दगी बेकार है।’
इंदिरा उसकी कमर में तलवार लगाती हुई बहलाने के लिए कहती है, ‘आपको मेरे जैसी हजारों औरतें मिलेंगी। आपको एक गरीब का प्रेम मिल भी जाए तो आपको इससे सन्तोष नहीं होगा।’
राजकुमार का चेहरा प्रसन्नता से खिल जाता है और कहता है, ‘प्यार तो संकल्प और व्रत की चिन्ता नहीं करता।’
इंदिरा, ‘लेकिन प्यार छूमन्तर से पैदा होने वाली चीज भी तो नहीं। जो प्यार एक दृष्टि से पैदा हो सकता है वह एक दृष्टि में समाप्त भी हो सकता है। तुम राजकुमार हो। मुझे क्या भरोसा कि मुझसे अधिक रूपवती और सौन्दर्यवान औरत पाकर तुम मेरी ओर से आँखें नहीं फेर लोगे। फिर तो मैं कहीं की भी न रहूँगी। प्रिय-मिलन के लिए ईश्वर को छोड़कर यदि भाग्यहीन रहूँ तो क्या हो?’
राजकुमार, ‘हाँ, तुम्हारी यह शर्त मुझे स्वीकार है। इंदिरा, मुझे अवसर दो कि मैं तुम्हारे हृदय पर अपने प्यार का चिह्न अंकित कर सकूँ। लेकिन यदि तुम मुझसे मुँह मोड़कर चली गईं तो देख लेना, उसी दिन तुम्हें मेरे मरने की खबर मिलेगी।’
इंदिरा देखती है कि हरिहर धीरे-धीरे नदी के किनारे से बस्ती की ओर चला जा रहा है। अपनी बेबसी और निराशा का विचार करके उसकी आँखें नम हो गईं।
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