कहानी संग्रह >> प्रेमचन्द की कहानियाँ 37 प्रेमचन्द की कहानियाँ 37प्रेमचंद
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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का सैंतीसवाँ भाग
हरिहर एक घोड़े पर इंदिरा को सवार करा देता है और दूसरे पर स्वयं बैठता है और दोनों शहर की अंधेरी सड़कों पर होते हुए निकल जाते हैं।
इसी समय पद्मा परकोटे पर चढ़कर ज्ञान सिंह के बराबर में खड़ी होकर कहती है, ‘बहादुरो! मैं तुम्हें शुभ सूचना देती हूँ कि अब इंदिरा इस महल में नहीं है। तुममें से कोई एक विश्वसनीय आदमी शाही किले में आकर तसल्ली कर सकता है। वह जिस गुमनामी से आई थी, फिर उसी में चली गई है। अब तुम लोग वापस लौट जाओ। मैं तुम लोगों को विश्वास दिलाती हूँ कि तुम लोगों के सिर से ये आदेश हटा लिए जाएँगे।’
ज्ञान सिंह घायल पक्षी की भाँति एक ठंडी साँस लेकर गिर पड़ता है। विद्रोहियों की भीड़ लौट जाती है और ज्ञान सिंह को इस विद्रोह से छुटकारा दिलाने का श्रेय पद्मा को मिलता है।
निराश स्वर से ज्ञान सिंह पूछता है, ‘इंदिरा कहाँ चली गई?’
पद्मा, ‘जहाँ से आई थी वहीं चली गई। यदि तुम समझते हो कि उसे तुमसे प्यार था तो तुम गलती पर हो। वह यहाँ मजबूरी में पड़ी थी। उसका प्रेमी वही अभागा कवि हरिहर है, वह उसी पर जान देती है। उसको कोई पद दिलाने के लिए वह यहाँ पड़ी हुई थी। जब उसने देखा कि यहाँ खतरा है तो भाग निकली। बेवफा थी।’
मृतप्राय सी दशा में ज्ञान सिंह अन्दर आया और आवेश में इंदिरा की प्रत्येक वस्तु को पैरों से कुचल डालता है। प्यार असफल होने पर पश्चात्ताप का रूप धारण कर लेता है। दीवारों पर इंदिरा के कई चित्र लगे हुए हैं। ज्ञान सिंह उन चित्रों को उतारकर टुकड़े-टुकड़े कर डालता है। इस समय धैर्य और क्षमा की देवी बनी हुई पद्मा बाहर से तो उसके क्रोध को शान्त कर रही है लेकिन चोट करने वाली ऐसी-ऐसी बातें कहती है कि ज्ञान सिंह की ईर्ष्या की आग और भी भड़क उठती है। वह तम्बूरे के सैकड़ों टुकड़े कर डालता है। अचानक उसे एक बात याद आ जाती है। वह तत्काल बाहर आता है और कई विश्वस्त सिपाहियों को इंदिरा का पीछा करने के लिए भेज देता है और आदेश देता है कि शहर की नाकाबन्दी कर दी जाए।
फिर अन्दर जाकर इंदिरा की पूजा की वस्तुएँ और ठाकुरजी का सिंहासन - सब उठा-उठाकर फेंक देता है। जो दासियाँ इंदिरा की सेवा में नियुक्त थीं, उन्हें निकाल देता है और एक उन्माद की सी दशा में पाँव पटकता हुआ इंदिरा को बार-बार कोसता है, ‘धूर्त्ता, छलिया, जादूगरनी, बेवफा, कपटी।’
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