कहानी संग्रह >> प्रेमचन्द की कहानियाँ 37 प्रेमचन्द की कहानियाँ 37प्रेमचंद
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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का सैंतीसवाँ भाग
7. विक्रमादित्य का तेगा
बहुत जमाना गुजरा, एक रोज पेशावर के मौजे महानगर में प्रकृति की एक आश्चर्यजनक लीला दिखाई पड़ी। अंधेरी रात थी, बस्ती से कुछ दूर बरगद के एक छांहदार पेड़ के नीचे एक आग की लौ दिखायी पड़ी और एक झलमलाते हुए चिराग की तरह नजर आती रही। गांव में बहुत जल्द यह खबर फैल गयी। वहां के रहने वाले यह विचित्र दृश्य देखने के लिए यहां-वहां इकट्ठे हो गये। औरतें जो खाना पका रही थीं हाथों में गूंथा हुआ आटा लपेटे बाहर निकल आयीं। बूढ़ों ने बच्चों को कंधे पर बिठा लिया और खांसते हुए आ खड़े हुए। नवेली बहुएँ लाज के मारे बाहर न आ सकीं मगर दरवाजों की दरारों से झांक-झांककर अपने बेकरार दिलों को तस्कीन देने लगीं। उस गुम्बदनुमा पेड़ के नीचे अंधेरे के उस अथाह समुन्दर में रोशनी का यह धुंधला शोला पाप के बादलों से घिरी हुई आत्मा का सजीव उदाहरण पेश कर रहा था।
टेकसिंह ने ज्ञानियों की तरह सिर हिलाकर कहा- मैं समझ गया, भूतों की सभा हो रही है।
पंडित चेतराम ने विद्वानों के समान विश्वास के साथ कहा- तुम क्या जानों मैं तह पर पहुंच गया। साँप मणि छोड़कर चरने गया है। इसमें जिसे शक हो जाकर देख आये।
मुंशी गुलाबचंद बोले- इस वक्त जो वहां जाकर मणि को उठा लाये, उसके राजा होने में शक नहीं। मगर जान जोखिम है।
प्रेमसिंह एक बूढ़ा जाट था। वह इन महात्माओं की बातें बड़े ध्यान से सुन रहा था।
प्रेमसिंह दुनिया में बिलकुल अकेला था। उसकी सारी उम्र लड़ाइयों में खर्च हुई थी। मगर जब जिंदगी की शाम आई और वह सुबह की जिंदगी के टूटे-फूटे झोंपड़े में फिर आया तो उसके दिल में एक ख्वाहिश पैदा हुई। अफसोस, दुनिया जो ख्वाहिश शाम के वक्त (काश, मेरे भी कोई बच्चा होता) में मेरा कोई नहीं, चिड़ियों को घोंसले में खींच लाती है और जिस ख्वाहिश से बेकरार होकर जानवर शाम को अपने थानों की तरफ चलते हैं, वही ख्वाहिश प्रेमसिंह के दिल में मौजें मारने लगी। ऐसा कोई नहीं, जिसे वह रात के वक्त कौर बना-बना कर खिलाये। ऐसा कोई नहीं, जिसे वह रात के वक्त लोरियां सुना-सुनाकर सुलाये। यह आकांक्षाएं प्रेमसिंह के दिल में कभी न पैदा हुई थीं। मगर सारे दिन का अकेलापन इतना उदास करने वाला नहीं होता जितना शाम का।
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