कहानी संग्रह >> प्रेमचन्द की कहानियाँ 37 प्रेमचन्द की कहानियाँ 37प्रेमचंद
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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का सैंतीसवाँ भाग
चेतराम- उसकी मूठ पर उनका नाम खुदा हुआ है।
मुसाफिर- उनकी तलवार तो बहुत बड़ी होगी?
चेतराम- नहीं, वह तो एक छोटा-सा नीमचा है।
मुसाफिर- तो फिर उसमें कोई खास गुण होगा।
चेतराम- जी हां, उसके गुण अनमोल हैं। देखकर अक्ल दंग रह जाती है। जहाँ रख दो, उसमें जलते चिराग की-सी रोशनी पैदा हो जाती है।
मुसाफिर- ओफ्फोह!
चेतराम- मगर ज्योंही कोई आदमी उसे हाथ में ले लेता है, उसकी सारी चमक-दमक गायब हो जाती है।
यह अजीब बात सुनकर उस मुसाफिर की वही कैफियत हो गई जो एक आश्चर्यजनक कहानी सुनने से बच्चों की हो जाया करती है। उसकी आंख और भंगिमा से अधीरता प्रकट होने लगी। जोश से बोला- विक्रमादित्य, तुम्हारे प्रताप को धन्य है!
जरा देर के बाद फिर बोला- वह कौन बुजुर्ग हैं जिनके पास यह अनमोल चीज है?
प्रेमसिंह ने गर्व से कहा- मेरे पास है।
मुसाफिर- क्या मैं उसे देख सकता हूं?
प्रेमसिंह- हां, मैं आपको सवेरे दिखाऊंगा। मगर नहीं, ठहरिए, सवेरे तो हम उसे महाराज रणजीतसिंह को भेंट करेंगे, आपका जी चाहे तो इसी वक्त देख लीजिए।
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