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प्रेमचन्द की कहानियाँ 37

प्रेमचंद

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :200
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9798
आईएसबीएन :9781613015353

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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का सैंतीसवाँ भाग


जब वृन्दा सिपाहियों के साथ पड़ाव की तरफ चली तो प्रेमसिंह ने कहा- वृन्दा, इनके साथ जाती हो तो फिर इस घर में पैर न रखना।

वृन्दा जब पड़ाव पर पहुंची तो वहाँ बदमस्तियों का एक तूफान मचा हुआ था। विजय की देवी दुश्मन को बर्बाद करके अब विजेताओं की मानवता और सज्जनता को पाँव से कुचल रही थी। हैवानियत का खूंखार शेर दुश्मन के खून से तृप्त न होकर अब मानवोचित भावों का खून चूस रहा था। वृन्दा को लोग एक सजे हुए खेमे में ले गये। यहाँ फर्शी चिराग रोशन थे और आग-जैसी शराब के दौर चल रहे थे। वृन्दा उस कोने पर सहमी हुई बैठी थी। वासना का भूत जो इस वक्त दिलो में अपनी शैतानी फौज सजाये बैठा था कभी आंखों की कमान से सतीत्व की नाश करने वाली तेज तीर चलाता और कभी मुँह की कमान से मर्मवेधी बाणों की बौछार करता। जहरीली शराब में बुझे हुए तीर वृन्दा के कोमल और पवित्र हृदय को छेदते हुए पार हो जाते थे। वह सोच रही थी- ऐ द्रोपदी की लाज रखने वाले कृष्ण भगवान्, तुमने धर्म के बन्धन से बँधे हुए पाण्डवों के होते हुए द्रोपदी की लाज रखी थी, मैं तो दुनिया में बिल्कुल अनाथ हूँ, क्या मेरी लाज न रखोगे? यह सोचते हुए उसने मीरा का यह मशहूर भजन गाया:

सिया रघुवीर भरोसो ऐसो।

वृन्दा ने यह गीत बड़े मोहक ढ़ंग से गाया। उसके मीठे सुरों में मीरा का अन्दाज पैदा हो गया था। प्रकट रूप में वह शराबी सिपाहियों के सामने बैठी गा रही थी। मगर कल्पना की दुनिया में वह मुरलीवाले श्याम के सामने हाथ बाँधे खड़ी उससे प्रार्थना कर रही थी।

जरा देर के लिए उस शोर से भरे हुए महल में निस्तब्धता छा गयी। इन्सान के दिल में बैठे हुए हैवान पर भी प्रेम की यह तडपा देने वाली पुकार अपना जादू चला गयी। मीठा गाना मस्त हाथी को भी बस में कर लेता है। पूरे घंटे भर तक वृन्दा ने सिपाहियों को मूर्तिवत् रखा। सहसा घडियाल ने पाँच बजाये। सिपाही और सरदार सब चौंक पड़े। सबका नशा हिरन हो गया। चालीस कोस की मंजिल तय करनी है, फुर्ती के साथ रवानगी की तैयारियाँ होने लगीं। खेमे उखड़ने लगे, सवारों ने घोडों को दाना खिलाना शुरू किया। एक भगदड़-सी मच गयी। उधर सूरज निकला इधर फौज ने कूच का डंका बजा दिया। शाम को जिस मैदान का एक-एक कोना आबाद था, सुबह को वहाँ कुछ भी न था। सिर्फ टूटे-फूटे उखड़े चूल्हे की राख और खेमों की कीलों के निशान उस शान-शौकत की यादगार के रूप में रह गये थे।

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