कहानी संग्रह >> प्रेमचन्द की कहानियाँ 37 प्रेमचन्द की कहानियाँ 37प्रेमचंद
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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का सैंतीसवाँ भाग
वृन्दा चुप हो गयी। प्रेमसिंह ने उठकर दरवाजा खोल दिया। दरवाजे के सहन में सिपाहियों की एक भीड़ थी। दरवाजा खुलते ही कई सिपाही दहलीज में घुस आये और बोले- तुम्हारे घर में कोई गानेवाली रहती है, हम उसका गाना सुनेंगे।
प्रेमसिंह ने कड़ी आवाज में कहा- हमारे यहां कोई गानेवाली नहीं है।
इस पर कई सिपाहियों ने प्रेमसिंह को पकड़ लिया और बोले- तेरे घर से गाने की आवाज आती थी।
एक सिपाही- बताता क्यों नहीं रे, कौन गा रहा है?
प्रेमसिंह- मेरी लड़की गा रही थी। मगर वह गानेवाली नहीं है।
सिपाही- कोई हो, हम तो आज गाना सुनेंगे।
गुस्से से प्रेमसिंह कांपने लगा, होंठ चबाकर बोला- यारो, हमने भी अपनी जिन्दगी फौज में ही काटी है मगर कभी.....
इस हंगामे में प्रेमसिंह की बात किसी ने न सुनी। एक नौजवान जाट ने, जिसकी आंखें नशे से लाल हो रही थीं, ललकारकर कहा- इस बुड्ढे की मूछें उखाड़ लो।
वृन्दा आंगन में पत्थर की मूरत की तरह खड़ी यह कैफियत देख रही थी। जब उसने दो सिपाहियों को प्रेमसिंह की मूंछ पकड़कर खींचते देखा तो उससे न रहा गया, वह निर्भय सिपाहियों के बीच में घुस आयी और ऊंची आवाज में बोली- कौन मेरा गाना सुनना चाहता है।
सिपाहियों ने उसे देखते ही प्रेमसिंह को छोड़ दिया और बोले- हम सब तेरा गाना सुनेंगे।
वृन्दा- अच्छा बैठ जाओ, मैं गाती हूँ।
इस पर कई सिपाहियों ने जिद की कि इसे पड़ाव पर ले चलें, वहां खूब रंग जमेगा।
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