कहानी संग्रह >> प्रेमचन्द की कहानियाँ 37 प्रेमचन्द की कहानियाँ 37प्रेमचंद
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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का सैंतीसवाँ भाग
वृन्दा अब लाहौर की मशहूर गानेवालियों में से एक है। उसे इस शहर में तीन महीने से ज्यादा नहीं हुए, मगर इतने ही दिनों में उसने बहुत बड़ी शोहरत हासिल कर ली है। यहाँ उनका नाम श्यामा मशहूर है। इतने बड़े शहर में जिससे श्यामा बाई का पता पूछो वह यकीनन बता देगा। श्यामा की आवाज और अन्दाज में कोई मोहिनी है, जिसने शहर में हर को अपना प्रेमी बना रक्खा है। लाहौर में बाकमाल गानेवालियों की कमी नहीं है। लाहौर उस जमाने में हर कला का केन्द्र था मगर कोयलें और बुलबुलें बहुत थी। श्यामा सिर्फ एक थी। वह ध्रुपद ज्यादा गाती थी इसलिए लोग उसे ध्रुपदी कहते थे।
लाहौर में मियाँ तानसेन के खानदान के कई ऊंचे कलाकार हैं जो राग और रागनियों में बातें करते हैं। वह श्यामा का गाना पसन्द नहीं करते। वह कहते हैं कि श्यामा का गाना अकसर गलत होता है। उसे राग ओर रागिनियों का ज्ञान नहीं। मगर उनकी इस आलोचना का किसी पर कुछ असर नहीं होता। श्यामा गलत गाये या सही वह जो कुछ गाती है उसे सुनकर लोग मस्त हो जाते हैं। उसका भेद यह है कि श्यामा हमेशा दिल से गाती है और जिन भावों को वह प्रकट करती है उन्हें खुद भी अनुभव करती है। वह कठपुतलियों की तरह तुली हुई अदाओं की नकल नहीं करती है। अब उसके बगैर महफिलें सूनी रहती हैं। हर महफिल में उसका मौजूद होना लाजिमी हो गया है। वह चाहे श्लोक ही गाये मगर बगैर संगीत प्रेमियों का जी नहीं भरता। तलवार की बाढ की तरह वह महफिलों की जान है। उसने साधारणजनों के हृदय में यहाँ तक घर लिया है कि जब अपनी पालकी पर हवा खाने निकलती है तो उस पर चारों तरफ से फूलों की बौछार होने लगती है।
महाराज रणजीत सिंह को काबुल से लौटे हुए तीन महीने गुजर गए, मगर अभी तक विजय की खुशी में कोई जलसा नहीं हुआ। वापसी के बाद कई दिन तक तो महाराज किसी कारण से उदास थे, उसके बाद उनके स्वभाव में यकायक एक बड़ा परिवर्तन आया, उन्हें काबुल की विजय की चर्चा से घृणा-सी हो गई। जो कोई उन्हें इस जीत की बधाई देने जाता उसकी तरफ से मुंह फेर लेते थे। वह आत्मिक उल्लास जो मौजा महानगर तक उनके चेहरे से झलकता था, अब वहाँ न था। काबुल को जीतना उनकी जिंदगी की सबसे बड़ी आरजू थी। वह मोर्चा जो एक हजार साल तक हिन्दू राजाओं की कल्पना से बाहर था, उनके हाथों सर हुआ। जिस मुल्क ने हिन्दोस्तान को एक हजार बरस तक अपने मातहत रक्खा वहाँ हिन्दू कौम का झण्ड़ा रणजीत सिंह ने उड़ाया। गजनी और काबुल की पहाड़ियाँ इन्सानी खून से लाल हो गयीं, मगर रणजीत सिंह खुश नहीं हैं। उनके स्वभाव की कायापलट का भेद किसी की समझ में नहीं आता। अगर कुछ समझती है तो वृन्दा समझती है।
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