कहानी संग्रह >> प्रेमचन्द की कहानियाँ 37 प्रेमचन्द की कहानियाँ 37प्रेमचंद
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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का सैंतीसवाँ भाग
तीन महीने तक महाराज की यही कैफियत रही। इसके बाद उनका मिजाज अपने असली रंग पर आने लगा। दरबार की भलाई चाहने वाले इस मौके के इन्तजार में थे। एक रोज उन्होंने महाराज से एक शानदार जलसा करने की प्रार्थना की। पहले तो वह बहुत क्रुद्व हुए मगर आखिरकार मिजाज समझाने वालों की घातें अपना काम कर गई।
जलसे की तैयारियाँ बड़े पैमाने पर की जाने लगीं। शाही नृत्यशाला की सजावट होने लगी। पटना, बनारस, लखनऊ, ग्वालियर, दिल्ली और पूना की नामी वेश्याओं को सन्देश भेजे गये। वृन्दा को भी निमंत्रण मिला। आज एक मुद्दत के बाद उसके चेहरे पर मुस्कराहट की झलक दिखाई दी।
जलसे की तारीख निश्चित हो गई। लाहौर की सड़कों पर रंग-बिरंगी झंडियां लहराने लगी। चारों तरफ से नबाब और राजे बड़ी शान के साथ सज-सजकर आने लगे। होशियार फर्राशों ने नृत्यशाला को इतने सुन्दर ढंग से सजाया था कि उसे देखकर लगता था कि विलास का विश्रामस्थल है।
शाम के वक्त शाही दरबार जमा। महाराजा साहब सुनहरे राजसिंहासन पर शोभायमान हुए। नबाब और राजे, अमीर और रईस, हाथी घोड़ों पर सवार अपनी सजधज दिखते हुए एक जलूस बनाकर महाराज की कदमबोसी को चले। सड़क पर दोनों तरफ तमाशाइयों का ठट लगा था। खुशी का रंगों से भी कोई गहरा संबंध है। जिधर आंख उठती थी। रंग ही रंग दिखायी देते थें। ऐसा मालूम होता था कि कोई उमड़ी हुई नदी रंग बिरंगे फूलों की क्यारियों से बहती चली आती है।
अपनी खुशी के जोश में कभी-कभी लोग अभद्रता भी कर बैठते थे। एक पण्डित जी मिर्जई पहने सर पर गोल टोपी रक्खे तमाशा देखने में लगे थे। किसी मनचले ने उनकी तोंद पर एक चमगादड़ चिमटा दी। पंडित जी बेतहाशा तोंद मटकाते हुए भागे। बडा कहकहा पड़ा। एक और मौलवी साहब नीची अचकन पहने हुए दुकान पर खड़े थे। दुकानदार ने कहा- मौलवी साहब, आपको खड़े-खड़े तकलीफ होती है, यह कुर्सी रक्खी है, बैठ जाइए। मौलवी साहब बहुत खुश हुए, सोचने लगे कि शायद मेरे रूप-रंग से रौब झलक रहा है। वर्ना दुकानदार कुर्सी क्या देता? दुकानदार आदमियों के बड़े पारखी होते हे। हजारों आदमी खड़े है, मगर उसने किसी से बैठने की प्रार्थना न की। मौलवी साहब मुस्कराते हुए कुर्सी पर बैठे, मगर बैठते ही पीछे की तरफ लुढ़के और नीचे बहती हुई नाली में गिर पड़े। सारे कपड़े लथपथ हो गये। दुकानदार को हजारों खरी-खोटीं सुनायीं। बड़ा कहकहा पड़ा। कुर्सी तीन ही टांग की थी।
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