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प्रेमचन्द की कहानियाँ 37

प्रेमचंद

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :200
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9798
आईएसबीएन :9781613015353

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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का सैंतीसवाँ भाग


उस शाही महफिल में रात भर मीठे-मीठे गानों की बौछार होती रही। पीलू और पिरच, देस और विभाग के मदभरे झोंके चलते रहे। सुन्दरी नर्तकियों ने बारी-बारी से अपना कमाल दिखाया। किसी की नाजभरी अदाएँ दिलों में खुद गयीं, किसी का थिरकना कत्लेआम कर गया, किसी की रसीली तानों पर वाह-वाह मच गई। ऐसी तबियत बहुत कम थी जिन्होंने सच्चाई के साथ गाने का पवित्र आनन्द न उठाया हो।

चार बजे होंगे श्यामा की बारी आयी तो उपस्थित लोग सम्हल बैठे। चाव के मारे लोग आगे खिसकने लगे। खुमारी से भरी हुई आंखें चौंक पड़ीं। वृन्दा महफिल में आई और सर झुकाकर खड़ी हो गई। उसे देखकर लोग हैरत में आ गये। उसके शरीर पर न आबदार गहने थे, खुशरंग, भड़कीली पेशवाज। वह सिर्फ एक गेरुए रंग की साड़ी पहने हुए थी। जिस तरह गुलाब की पंखुरी पर डूबते हुए सूरज की सुनहरी किरण चमकती है, उसी तरह उसके गुलाबी होठों पर मुस्कराहट झलकती थी। उसका आडम्बर से मुक्त सौंदर्य अपने प्राकृतिक वैभव की शान दिखा रहा था। असली सौदर्य बनाव-सिंगार का मोहताज नहीं होता। प्रकृति के दर्शन से आत्मा को जो आनन्द प्राप्त होता है वह सजे हुए बगीचों की सैर से मुमकिन नहीं। वृन्दा ने गाया:

सब दिन नाहीं बराबर जात।

यह गीत इससे पहले भी लोगों ने सुना था मगर इस वक्त का-सा असर कभी दिलों पर नहीं हुआ था। किसी के सब दिन बराबर नहीं जाते यह कहावत रोज सुनते थे। आज उसका मतलब समझ में आया। किसी रईस को वह दिन याद आया जब खुद उसके सिर पर ताज था, आज वह किसी का गुलाम है। किसी को अपने बचपन की लाड़-प्यार की गोद याद आई, किसी को वह जमाना याद आया, जब वह जीवन के मोहक सपने देख रहा था। मगर अफसोस अब वह सपना तितर-बितर हो गया। वृन्दा भी बीते हुए दिनों को याद करने लगी। एक दिन वह था कि उसके दरवाजे पर अताइयों और गानेवालों की भीड रहती थी। इसके आगे वृन्दा कुछ सोच न सकीं। दोनों ओर खुशियों की और आज हालातों का मुकाबिला बहुत दिल तोड़नेवाला था, निराशा से भर देने वाला। उसकी आवाज भारी हो गई और रोने से गला बैठ गया।

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