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प्रेमचन्द की कहानियाँ 37

प्रेमचंद

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :200
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9798
आईएसबीएन :9781613015353

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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का सैंतीसवाँ भाग


एक जगह कोई अफीमची साहब तमाशा देखने आये हुए थे। झुकी हुई कमर पोंपला मुंह, छिदरे-छिदरे सर के बाल और दाढी के बाल, मेंहदी से रगे हुए थे। आंखों में सुरमा भी था। आप बड़े गौर से सैर करने में लगे थे। इतने में एक हलवाई सर पर खोमचा रक्खे हुए आया और बोला- खाँ साहब, जुमेरात की गुलाबवाली रेवड़ियाँ हैं। आज पैसे की आध पांव लगा दीं, खा लीजिए वर्ना पछताइएगा।

अफीमची साहब ने जेब में हाथ ड़ाला मगर पैसे न थे। हाथ मल कर रह गये, न पैसे नहीं हुए तो मुँह में पानी भर आया। गुलाबवाली रेवड़ियाँ पैसे में आध पाव सेरो तुला लेता। हलवाई ताड़ गया, बोला- आप पैसे की कुछ फिक्र न करें, पैसे फिर मिल जाएंगे। आप कोई ऐसे वैसे आदमी थोडे ही हैं। अफीमची साहब की बाँछें खिल गयीं। रूह फड़क उठी। आपने पाव भर-रेवड़ियाँ लीं और जी में कहा। अब पैसा देने वाले पर लानत है। घर से निकलूँगा ही नहीं, तो पैसे क्या लोगे? अपने रूमाल में रेवडियाँ लीं। आशिक के दिल में सब्र कहाँ? मगर ज्यों ही पहली रेवड़ी जबान पर रक्खी कि तिलमिला गये। पागल कुत्ते की तरह पानी की तलाश में इधर-उधर दौड़ने लगे। आँख और नाक से पानी बहने लगा। आधा मुँह खोलकर ठंडी हवा से जबान की जलन बुझाने लगे। जब होश ठीक हुए तो हलवाई को हजारों गालियां सुनायीं, इस पर लोग खूब हंसे। खुशी के मौके पर ऐसी शरारतें अकसर हुआ करती हैं। और इन्हें लोग खूब मुआफी के काबिल समझते हैं क्योंकि वह खौलती हुई हांडी के उबाल हैं।

रात के नौ बजे संगीतशाला से जमघट हुआ। सारा महल नीचे से ऊपर तक रंग-बिरंगी हांड़ियों और फानूसों से जगमगा रहा था। अन्दर झांड़ों की बहार थी। बाकमाल कारीगर ने रंगशाला के बीचों-बीच अधर में लटका हुआ एक फव्वारा लगाया था। जिसके सूराखों से खस और केवड़ा, गुलाब और सन्दल का अरक हलकी फुहारों में बरस रहा था। महफिल में अम्बर की बौछार करने वाली तरावट फैली हुई थी। खुशी अपनी सखियों-सहेलियों के साथ खुशियां मना रही थी।

दस बजे महाराजा रणजीतसिंह तशरीफ लाये। उनके बदन पर तंजेब की एक सफेद अचकन थी और तिरछी पगड़ी बँधी हुई थी। जिस तरह सूरज क्षितिज की रंगीनियों से पाक रहकर अपनी पूरी रोशनी दिखा सकता है। उसी तरह हीरे और जवाहरात, रेशमी कपडों की पुरतकल्लुफ सजावट से मुक्त रहकर भी महाराजा रणजीतसिंह का प्रताप पूरी तेजी के साथ चमक रहा था। चन्द नामी शायरों ने महाराज की शान में इसी मौके के लिए कासीदे कहे थे। मगर उपस्थित लोगों के चेहरों से उनके दिलों में जोश खाता हुआ संगीत-प्रेम देखकर महाराज ने गाना शुरू करने का हुक्म कर दिया। तबले पर थाप पड़ी, साजिन्दों ने सुर मिलाया, नींद से झपकती हुई आंखें खुल गयीं और गाना शुरू हो गया।

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