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प्रेमचन्द की कहानियाँ 38

प्रेमचंद

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :152
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9799
आईएसबीएन :9781613015360

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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का अड़तीसवाँ भाग


सभी की आँखें उसी चंद्रमुखी की ओर चकोर की नाईं लगी रहती थीं। सब उसकी कृपा-कटाक्ष के अभिलाषी थे। सभी उसकी मधुर वाणी सुनने के लिए लालायित थे। किंतु प्रकृति का जैसा नियम है, आचारशील हृदयों पर प्रेम का जादू जब चल जाता है, तब वारा-न्यारा करके ही छोड़ता है। और लोग तो आँखें ही सेंकने में मग्न रहा करते, किंतु पंडित चक्रधर प्रेम-वेदना से विकल और सत्य अनुराग से उन्मत्त हो उठे। रमणी के मुख की ओर ताकते भी झेंपते थे कि कहीं किसी की निगाह न पड़ जाय, तो इस तिलक और शिखा पर फबतियाँ उड़ने लगें। जब अवसर पाते, तो अत्यन्त विनम्र, सचेष्ट, आतुर और अनुरक्त नेत्रों से देख लेते किंतु आँखें चुराये हुए और सिर झुकाये हुए, कि कहीं अपना परदा न खुल जाय, दीवार से कानों को खबर न हो जाय।

मगर दाई से पेट कहाँ छिप सकता है। ताड़नेवाले ताड़ गये। यारों ने पंडितजी की मुहब्बत की निगाह पहचान ही ली। मुँहमाँगी मुराद पायी। बाछें खिल गयीं। दो महाशयों ने उनसे घनिष्ठता बढ़ानी शुरू कर दी। मैत्री को संघटित करने लगे। जब समझ गये कि इन पर हमारा विश्वास जम गया, शिकार पर वार करने का अवसर आ गया, तो एक रोज दोनों ने बैठकर लेडियों की शैली में पंडितजी के नाम एक पत्र लिखा-

'माई डियर चक्रधर, बहुत दिनों से विचार कर रही हूँ कि आपको पत्र लिखूँ; मगर इस भय से कि बिना परिचय से ऐसा साहस करना अनुचित होगा, अब तक जब्त करती रही। पर अब नहीं रहा जाता। आपने मुझ पर न-जाने क्या जादू कर दिया है कि एक क्षण के लिए भी आपकी सूरत आँखों से नहीं उतरती। आपकी सौम्य मूर्ति, प्रतिभाशाली मस्तक और साधारण पहनावा सदैव आँखों के सामने फिरा करता है। मुझे स्वभावतः आडम्बर से घृणा है। पर यहाँ सभी को कृत्रिमता के रंग में डूबा पाती हूँ। जिसे देखिए, मेरे प्रेम में अनुरक्त है; पर मैं उन प्रेमियों के मनोभावों से परिचित हूँ। वे सब-के-सब लम्पट और शोहदे हैं। केवल आप एक ऐसे सज्जन हैं जिनके हृदय में मुझे सद्भाव और सदनुराग की झलक दीख पड़ती है। बार-बार उत्कंठा होती है कि आपसे कुछ बातें करती; मगर आप मुझसे इतनी दूर बैठते हैं कि वार्तालाप का सुअवसर नहीं प्राप्त होता। ईश्वर के लिए कल से आप मेरे समीप ही बैठा कीजिए, और कुछ न सही तो आपके सामीप्य ही से मेरी आत्मा तृप्त होती रहेगी।

इस पत्र को पढ़कर फाड़ डालिएगा और इसका उत्तर लिखकर पुस्तकालय की तीसरी आलमारी के नीचे रख दीजिएगा।

आपकी
लूसी'

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