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प्रेमचन्द की कहानियाँ 38

प्रेमचंद

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :152
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9799
आईएसबीएन :9781613015360

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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का अड़तीसवाँ भाग


यह पत्र डाक में डाल दिया गया और लोग उत्सुक नेत्रों से देखने लगे कि इसका क्या असर होता है। उन्हें बहुत लम्बा इंतजार न करना पड़ा। दूसरे दिन कालेज में आकर पंडितजी को लूसी के सन्निकट बैठने की फिक्र हुई। वे दोनों महाशय जिन्होंने उनसे आत्मीयता बढ़ा रखी थी, लूसी के निकट बैठा करते थे। एक का नाम था नईम और दूसरे का गिरिधर सहाय। चक्रधर ने आकर गिरिधर से कहा- यार, तुम मेरी जगह जा बैठो। मुझे यहाँ बैठने दो।

नईम- क्यों? आपको हसद होता है क्या?

चक्रधर- हसद-वसद की बात नहीं। वहाँ प्रोफेसर साहब का लेक्चर सुनायी नहीं देता। मैं कानों का जरा भारी हूँ।

गिरिधर- पहले तो आपको यह बीमारी न थी। यह रोग कब से उत्पन्न हो गया?

नईम- और फिर प्रोफेसर साहब तो यहाँ से और भी दूर हो जायँगे जी?

चक्रधर- दूर हो जायँगे तो क्या, यहाँ अच्छा रहेगा। मुझे कभी-कभी झपकियाँ आ जाती हैं। सामने डर लगा रहता है कि कहीं उनकी निगाह न पड़ जाय।

गिरिधर- आपको तो झपकियाँ ही आती हैं न। यहाँ तो वही घंटा सोने का है। पूरी एक नींद लेता हूँ। फिर?

नईम- तुम भी अजीब आदमी हो। जब दोस्त होकर एक बात कहते हैं, तो उसको मानने में तुम्हें क्या एतराज? चुपके से दूसरी जगह जा बैठो।

गिरिधर- अच्छी बात है, छोड़े देता हूँ। किंतु यह समझ लीजिएगा कि यह कोई साधारण त्याग नहीं है। मैं अपने ऊपर बहुत जब्र कर रहा हूँ। कोई दूसरा लाख रुपये भी देता, तो जगह न छोड़ता।

नईम- अरे भाई, यह जन्नत है जन्नत ! लेकिन दोस्त की खातिर भी तो है कोई चीज?

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