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प्रेमचन्द की कहानियाँ 38

प्रेमचंद

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :152
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9799
आईएसबीएन :9781613015360

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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का अड़तीसवाँ भाग


गिरिधर- खैर, खुदा उन्हें जल्द दुनिया से नजात दे।

रातोंरात पैकेट बना और प्रातःकाल पंडितजी उसे ले जाकर लाइब्रेरी में रख आये। लाइब्रेरी सवेरे ही खुल जाती थी। कोई अड़चन न हुई। उन्होंने इधर मुँह फेरा। उधर यारों ने माल उड़ाया और चम्पत हुए। नईम के कमरे में चंदे के हिसाब से हिस्सा-बाँट हुआ। किसी ने घड़ी पायी, किसी ने रूमाल, किसी ने कुछ। एक रुपये के बदले पाँच-पाँच रुपये हाथ लगे।

प्रेमीजन का धैर्य अपार होता है। निराशा पर निराशा होती है, पर धैर्य हाथ से नहीं छूटता। पंडितजी बेचारे विपुल धन व्यय करने के पश्चात् भी प्रेमिका से सम्भाषण का सौभाग्य न प्राप्त कर सके। प्रेमिका भी विचित्र थी, जो पत्रों में मिसरी की डली घोल देती, मगर प्रत्यक्ष दृष्टिपात भी न करती थी। बेचारे बहुत चाहते थे कि स्वयं ही अग्रसर हों, पर हिम्मत न पड़ती थी। विकट समस्या थी। किंतु इससे भी वह निराश न थे। हवन-संध्या तो छोड़ ही बैठे थे। नये फैशन के बाल कट ही चुके थे। अब बहुधा अँग्रेजी ही बोलते, यद्यपि वह अशुद्ध और भ्रष्ट होती थी। रात को अँग्रेजी मुहावरों की किताब लेकर पाठ की भाँति रटते। नीचे के दरजों में बेचारे ने इतने श्रम से कभी पाठ न याद किया था। उन्हीं रटे हुए मुहावरों को मौके-बे-मौके काम में लाते। दो-चार लूसी के सामने भी अँग्रेजी बघारने लगे, जिससे उनकी योग्यता का परदा और भी खुल गया।

किंतु दुष्टों को अब भी उन पर दया न आयी। एक दिन चक्रधर के पास लूसी का पत्र पहुँचा, जिसमें बहुत अनुनय-विनय के बाद यह इच्छा प्रकट की गयी थी कि- मैं भी आपको अँग्रेजी खेल खेलते देखना चाहती हूँ। मैंने आपको कभी फुटबाल या हाकी खेलते नहीं देखा। अँग्रेज जेंटिलमैन के लिए हॉकी, क्रिकेट आदि में सिद्धहस्त होना परमावश्यक है ! मुझे आशा है, आप मेरी यह तुच्छ याचना स्वीकार करेंगे। अँग्रेजी वेष-भूषा में, बोलचाल में, आचार-व्यवहार में, कालेज में अब आपका कोई प्रतियोगी नहीं रहा। मैं चाहती हूँ कि खेल के मैदान में भी आपकी सर्वश्रेष्ठता सिद्ध हो जाय। कदाचित् कभी आपको मेरे साथ लेडियों के सम्मुख खेलना पड़े, तो उस समय आपकी और आपसे ज्यादा मेरी हेठी होगी। इसलिए टेनिस अवश्य खेलिये।

दस बजे पंडितजी को वह पत्र मिला। दोपहर को ज्यों ही विश्राम की घंटी बजी कि आपने नईम से जाकर कहा- यार, जरा फुटबाल निकाल दो।

नईम फुटबाल के कप्तान भी थे। मुस्कराकर बोले- खैर तो है, इस दोपहर में फुटबाल लेकर क्या कीजिएगा? आप तो कभी मैदान की तरफ झाँकते भी नहीं। आज इस जलती-बलती धूप में फुटबाल खेलने की धुन क्यों सवार है?

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