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प्रेमचन्द की कहानियाँ 38

प्रेमचंद

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :152
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9799
आईएसबीएन :9781613015360

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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का अड़तीसवाँ भाग


चक्रधर- आपको इससे क्या मतलब। आप गेंद निकाल दीजिए। मैं गेंद में भी आप लोगों को नीचा दिखाऊँगा।

नईम- जनाब, कहीं चोट-चपेट आ जायगी, मुफ्त में परेशान होइएगा। हमारे ही सिर मरहम-पट्टी का बोझ पड़ेगा। खुदा के लिए इस वक्त रहने दीजिए।

चक्रधर- आखिर चोट तो मुझे लगेगी आपका इससे क्या नुकसान होता है? आपको जरा-सा गेंद निकाल देने में इतनी आपत्ति क्यों है?

नईम ने गेंद निकाल दिया और पंडितजी उसी जलती हुई दोपहरी में अभ्यास करने लगे। बार-बार गिरते थे, बार-बार तालियाँ पड़ती थीं, मगर वह अपनी धुन में ऐसे मस्त थे कि उसकी कुछ परवा ही न करते थे। इसी बीच में आपने लूसी को आते देख लिया, और भी फूल गये। बार-बार पैर चलाते थे, मगर निशाना खाली जाता था; पैर पड़ते भी थे तो गेंद पर कुछ असर न होता था। और लोग आकर गेंद को एक ठोकर में आसमान तक पहुँचा देते, तो आप कहते हैं, मैं जोर से मारूँ, तो इससे भी ऊपर जाय, लेकिन फायदा क्या? लूसी दो-तीन मिनट तक खड़ी उनकी बौखलाहट पर हँसती रही। आखिर नईम से बोली- वेल नईम, इस पंडित को क्या हो गया है? रोज एक न एक स्वाँग भरा करता है। इसके दिमाग में खलल तो नहीं पड़ गया?

नईम- मालूम तो कुछ ऐसा ही होता है।

शाम को सब लोग छात्रालय में आये, तो मित्रों ने जाकर पंडितजी को बधाई दी। यार, हो बड़े खुशनसीब, हम लोग फुटबाल को कालेज की चोटी तक पहुँचाते रहे, मगर किसी ने तारीफ न की। तुम्हारे खेल की सबने तारीफ की, खासकर लूसी ने। वह तो कहती थी, जिस ढंग से यह खेलते हैं, उस ढंग से मैंने बहुत कम हिंदुस्तानियों को खेलते देखा है। मालूम होता है, आक्सफोर्ड का अभ्यस्त खिलाड़ी है।

चक्रधर- और भी कुछ बोली? क्या कहा, सच बताओ?

नईम- अजी, अब साफ-साफ न कहलवाइए। मालूम होता है, आपने टट्टी की आड़ से शिकार खेला है। बड़े उस्ताद हो यार ! हम लोग मुँह ताकते रहे और तुम मैदान मार ले गये। जभी आप रोज यह कलेवर बदला करते थे? अब भेद खुला। वाकई खुशनसीब हो।

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