कहानी संग्रह >> प्रेमचन्द की कहानियाँ 38 प्रेमचन्द की कहानियाँ 38प्रेमचंद
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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का अड़तीसवाँ भाग
चक्रधर- कहा क्या, अपनी बिरह व्यथा की गाथा सुनाता रहा। इस पर उसने ऐसा चाँटा रसीद किया कि कान भन्ना उठे। हाथ हैं उसके कि पत्थर !
गिरिधर- गजब ही हो गया। आप हैं निरे चोंच ! भले आदमी, इतनी मोटी बुद्धि है तुम्हारी ! हम क्या जानते थे कि आप ऐसे छिछोरे हैं, नहीं तो मजाक ही क्यों करते। अब आपके साथ हम लोगों पर भी आफत आयी। कहीं उसने प्रिंसिपल से शिकायत कर दी, तो न इधर के हुए न उधर के। और जो कहीं अपने किसी अँग्रेज आशना से कहा, तो जान के लाले पड़ जायेंगे। बड़े बेवकूफ हो यार, निरे चोंच हो। इतना भी नहीं समझे कि वह सब दिल्लगी थी। ऐसे बड़े खूबसूरत भी तो नहीं हो।
चक्रधर- दिल्लगी तुम्हारे लिए थी, मेरी तो मौत हो गयी। चिड़िया जान से गयी, लड़कों का खेल हुआ। अब चुपके से मेरे पाँच सौ रुपये लौटा दीजिए, नहीं तो गरदन ही तोड़ दूँगा !
नईम- रुपयों के बदले खिदमत चाहे ले लो। कहो तुम्हारी हजामत बना दें, जूते साफ कर दें, सिर सहला दें। बस, खाना देते जाना। कसम ले लो, जो जिंदगी-भर कहीं जाऊँ, या तरक्की के लिए कहूँ। माँ-बाप के सिर से तो बोझ टल जायगा।
चक्रधर- मत जले पर नमक छिड़को जी ! आपके आप गये, मुझे ले डूबे। तुम्हारी तो अँग्रेजी अच्छी है, लोट-पोटकर निकल जाओगे। मैं तो पास भी न हूँगा। बदनाम हुआ, वह अलग पाँच सौ की चपत भी पड़ी। यह दिल्लगी है कि गला काटना? खैर समझूँगा और चाहे मैं न समझूँ, पर ईश्वर जरूर समझेंगे।
नईम- गलती हुई भाई, मुझे अब खुद इसका अफसोस है।
गिरिधर- खैर, रोने-धोने का अभी बहुत मौका है, अब यह बतलाइए कि लूसी ने प्रिंसिपल से कह दिया तो क्या नतीजा होगा। तीनों आदमी निकाल दिये जायेंगे। नौकरी से भी हाथ धोना पड़ेगा ! फिर?
चक्रधर- मैं तो प्रिंसिपल से तुम लोगों की सारी कलई खोल दूँगा।
नईम- क्यों यार, दोस्त के यही माने हैं?
चक्रधर- जी हाँ, आप जैसे दोस्तों की यही सजा है।
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