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प्रेमचन्द की कहानियाँ 38

प्रेमचंद

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :152
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9799
आईएसबीएन :9781613015360

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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का अड़तीसवाँ भाग


किंतु पंडितजी अभी तक यही समझ रहे थे कि यह मुझसे विनोद कर रही है। उसका हाथ पकड़ने की चेष्टा करके बोले- प्रिये, बहुत दिनों के बाद यह सुअवसर मिला है। अब न भागने पाओगी।

लूसी को अब क्रोध आ गया। उसने जोर से एक चाँटा उनके लगाया, और सिंहिनी की भाँति गरजकर बोली- यू ब्लाडी, हट जा रास्ते से, नहीं तो, अभी पुलिस को बुलाती हूँ। रास्केल !

पंडितजी चाँटा खाकर चौंधिया गये। आँखों के सामने अँधेरा छा गया। मानसिक आघात पर यह शारीरिक वज्रपात ! यह दुहरी विपत्ति ! वह तो चाँटा मारकर हवा हो गयी और यह वहीं जमीन पर बैठकर इस सम्पूर्ण वृत्तांत की मन-ही-मन आलोचना करने लगे। चाँटे ने बाहर की आँखें आँसुओं से भर दी थीं, पर अंदर की आँखें खोल दी थीं। कहीं कालेज के लौंडों ने तो यह शरारत नहीं की? अवश्य यही बात है। आह ! पाजियों ने बड़ा चकमा दिया ! तभी सब-के-सब मुझे देख-देखकर हँसा करते थे ! मैं भी कुछ कमअकल हूँ नहीं तो इनके हाथों टेसू क्यों बनता ! बड़ा झाँसा दिया। उम्र-भर याद रहेगा। वहाँ से झल्लाये हुए आये और नईम से बोले- तुम बड़े दगाबाज हो, परले सिरे के धूर्त, पाजी, उल्लू, गधे, शैतान !

नईम- आखिर कोई बात भी कहिए, या गालियाँ ही देते जाइएगा?

गिरिधर- क्या बात हुई, कहीं लूसी से आपने कुछ कहा तो नहीं?

चक्रधर- उसी के पास से आ रहा हूँ चाँटा खाकर और मुँह में कालिख लगवाकर ! तुम दोनों ने मिलकर मुझे खूब उल्लू बनाया। इसकी कसर न लूँ, तो मेरा नाम नहीं। मैं नहीं जानता था कि तुम लोग मित्र बनकर मेरी गरदन पर छुरा चला रहे हो ! अच्छा जो वह गुस्से में आकर पिस्तौल चला देती तो।

नईम- अरे यार, माशूकों की घातें निराली होती हैं !

चक्रधर- तुम्हारा सिर ! माशूक चाँटे लगाया करते हैं। वे आँखों से तीर चलाते हैं, कटार मारते हैं; या हाथों से मुष्टि-प्रहार करते हैं?

गिरिधर- उससे आपने क्या कहा?

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