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प्रेमचन्द की कहानियाँ 38

प्रेमचंद

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :152
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9799
आईएसबीएन :9781613015360

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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का अड़तीसवाँ भाग


लूसी- तुम छँटे हुए शोहदे हो। तुम्हें शर्म कहाँ ! मैं उसी को सजा देना चाहती हूँ। बदमाश, मेरा हाथ पकड़ना चाहता था।

नईम- जरा भी रहम न करोगी !

लूसी- नहीं, सौ बार नहीं।

नईम लूसी को साथ लाये। पंडित के सामने दोनों शर्तें रखी गयीं, तो बेचारा बिलबिला उठा। लूसी के पैरों पर गिर पड़ा और सिसक-सिसककर रोने लगा। नईम और गिरिधर भी अपने कुकृत्य पर लज्जित हुए। अन्त में लूसी को दया आयी। बोली- अच्छा, इन दोनों में से कोई एक शर्त मंजूर कर लो मैं मुआफ़ कर दूँगी।

लोगों को पूरा विश्वास था कि चक्रधर रुपयेवाली ही शर्त स्वीकार करेंगे। लूसी के सामने वह कभी कान पकड़कर उठा-बैठी न करेंगे। इसलिए जब चक्रधर ने कहा, मैं रुपये तो न दूँगा। हाँ, बीस की जगह चालीस बार उठा-बैठी कर लूँगा, तो सब लोग चकित हो गये। नईम ने कहा- यार, क्यों हम लोगों को जलील करते हो? रुपये क्यों नहीं देते?

चक्रधर- रुपये बहुत खर्च कर चुका। अब इस चुड़ैल के लिए कानी कौड़ी तो खर्च करूँगा नहीं, दो सौ बहुत होते हैं। इसने समझा होगा, चलकर मजे से दो सौ रुपये मार लाऊँगी और गुलछर्रे उड़ाऊँगी। यह न होगा। अब तक रुपये खर्च करके अपनी हँसी करायी है, अब बिना खर्च किये हँसी कराऊँगा। मेरे पैरों मे दर्द हो बला से, सब लोग हँसें बला से, पर इसकी मुट्ठी तो न गरम होगी।

यह कहकर चक्रधर ने कुरता उतार फेंका, धोती ऊपर चढ़ा ली और बरामदे से नीचे मैदान में उतरकर उठा-बैठी करने लगे। मुख-मंडल क्रोध से तमतमाता हुआ था, पर वह बैठकें लगाये जाते थे। मालूम होता था, कोई पहलवान अपना करतब दिखा रहा है। पंडित ने अगर बुद्धिमत्ता का कभी परिचय दिया तो इसी अवसर पर। सब लोग खड़े थे, पर किसी के होंठों पर हँसी न थी? सब लोग दिल में कटे जाते थे। यहाँ तक कि लूसी को भी सिर उठाने का साहस न होता था। सिर गड़ाये बैठी थी। शायद उसे खेद हो रहा था कि मैंने नाहक यह दंड-योजना की।

बीस बार उठते-बैठते कितनी देर लगती है। पण्डित ने खूब उच्च स्वर से गिन-गिनकर बीस की संख्या पूरी की और गर्व से सिर उठाये अपने कमरे में चले गये। लूसी ने उन्हें अपमानित करना चाहा था, उलटे उसी का अपमान हो गया।

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