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प्रेमचन्द की कहानियाँ 39

प्रेमचंद

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :202
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9800
आईएसबीएन :9781613015377

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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का उन्तालीसवाँ भाग


कुछ दिन और बीत गए। जानकीनाथ को अब एक-एक पल युग के समान कटता था। अपना अन्याय तीव्र शर के समान उनके हृदय में चुभा करता। स्वार्थपरता का मोटा पर्दा जो नेत्रों पर पड़ा हुआ था, अब वह हटने लगा। दयानाथ के उच्च-भाव अब उनकी समझ में आने लगे। अब उनकी आत्मा की वेदना और भी बढ़ने लगी। मैंने पुत्र को इसीलिए न घर से निकाला है कि वह अपने देश का कल्याण करना चाहता है, अपने जीवन को देश पर अर्पण करना चाहता है, मेरी तरह अधम स्वार्थसेवी नहीं बना रहना चाहता। मुझे इसके लिए अपने भाग्य को सराहना चाहिए था, किंतु, हा अज्ञान! हा तृष्णा! मैंने इसके बदले में उसके साथ यह अत्याचार किया। वह मुझे अपने मन में क्या समझता होगा! देश का द्रोही! देशबंधुओं का शत्रु, लंका का विभीषण! हाँ, वह देवता है। मैं राक्षस हूँ। मैं इस योग्य नहीं कि वह मुझे अपना पिता समझे। मैंने उसके साथ अन्याय किया। घोर अन्याय। मानापमान के भाव को अलग रखकर मैं अब उसे मना लाऊँगा। जाकर उसके पैरों पर गिर पडूँगा और कहूँगा- ''भगवन् मेरा अपराध क्षमा करो, तुम्हारे वियोग में तड़प रहा हूँ रो रहा हूँ मेरे आँसू पोंछो, मुझे समझाओ, मेरे दिल को ढाढस दो।''

संध्या का समय था। आकाश-भवन से रूठकर जाने वाले सूर्य को मनाने के लिए तारे आए थे। जानकीनाथ भी पुत्र को मनाने चले। उनका हृदय इस समय अगाध प्रेम से उमड़ा हुआ था; किंतु ज्यों-ज्यों आगे बढ़ते, लज्जा मन को पीछे खींचती। यहाँ तक कि उन्हें दयानाथ का मकान दिखाई देने लगा। दयानाथ दरवाजे पर बैठे कोई पत्र पढ़ रहे थे। जानकीनाथ के पैर बँध गए। उनके मन ने कहा- ''इस भाँति मनाकर ले जाने में तुम्हारी क्या बड़ाई है, क्या गौरव है? इसमें संदेह नहीं कि वह तुम्हारी बात नहीं टालेगा, किंतु वह श्रद्धा, वह भक्ति, जो पिता के प्रति पुत्र में होनी चाहिए, फिर वह कहाँ? नहीं, मुझे ऐसा काम करना चाहिए कि फिर वह श्रद्धा और अभिमान के वशीभूत होकर आप मेरे पास आए। अपने को मेरा पुत्र कहते हुए उसका मस्तक ऊँचा हो जाए, आँखें गौरवोन्नत हो जाएँ। यही अब मेरा कर्त्तव्य है। ईश्वर, मुझे बल दो, मेरी आत्मा को जागृति प्रदान करो!''

पिता पर पुत्र की जीत नहीं, पुत्र के भावों की जीत हुई।

एक दिन प्रातःकाल बूढ़े कहार ने आकर श्यामा से कहा- ''लालाजी अपने कमरे में नहीं हैं, उनके कपड़े-जूते भी नहीं हैं, तुमको कुछ मालूम है कहाँ गए हैं?''

श्यामा ने कहा- ''मैं नहीं जानती, कहीं घूमने गए होंगे।''

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