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प्रेमचन्द की कहानियाँ 39

प्रेमचंद

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :202
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9800
आईएसबीएन :9781613015377

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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का उन्तालीसवाँ भाग


नौ बज गए और जानकीनाथ नहीं लौटे। श्यामा ने समझा किसी अफ़सर की मुलाक़ात को गए होंगे, लेकिन जब दोपहर हो गई और वे घर न आए, तो श्यामा को चिंता हुई। वह उनके कमरे में आई कि देखूँ कौन-कौन-सा सामान लेकर गए हैं। पहली ही चीज़, जिस पर उसकी दृष्टि पड़ी, वह मेज पर रखा एक पत्र था। श्यामा ने लपककर पत्र को उठा लिया और पढ़ते ही मूर्च्छित-सी हो गई। लिखा था- ''बहूजी, अब संसार से मन विरक्त हो गया है, संन्यास लेता हूँ। दयानाथ को वह सूचना दे देना और यदि वे घर न आएं तो उन्हीं के पास जाकर रहना, मैं अब घर न आऊँगा। कौन जाने, यह हमारी अंतिम मुलाक़ात हो। दयानाथ से कह देना, अपराध को क्षमा करें।''

श्यामा ने बड़ी ही ठंडी साँस खींची। उसने पति के बिछोह को इस आशा पर सहा कि उसके ऐसा करने से ससुर के हृदय में संताप की कमी होगी और पिता-पुत्रों के फटे हुए हृदय आसानी से जुड़ जाएँगे। इस चिट्ठी ने उसकी आशा पर बिजली गिरा दी। 

इस घटना से दयानाथ के हृदय पर जबर्दस्त ठेस लगी। पिता के इस वैराग्य का कारण वे अपने ही को समझने लगे। वे मन-ही-मन अपना बहुत तिरस्कार करते। जानकीनाथ की खोज करने और कराने में दयानाथ और श्यामा ने कोई कमी नहीं की, परंतु उनका कहीं भी पता नहीं लगा। खोज की असफलता से दयानाथ के मन की ग्लानि और बढ़ गई।

वे बारंबार सोचते कि यह सब कुछ मेरी अधमता का फल है। अब स्वराज्यसभा के कामों में उनका मन न लगता। जब से उन्होंने इस मैदान में कदम रखा था, तब से उनके मन की शांति नष्ट हो गई थी। इसलिए इस काम से अब उनका नेह कैसे रहता! तो भी स्वराज्य-सभा का काम पहले से कहीं उत्तम रीति से चल रहा था। पहले धन की क़िल्लत थी। चंदे से जो आता था, उससे बहुत से आवश्यक काम नहीं हो पाते थे।

नगर के बड़े और धनवान आदमी सभा के पास फटकते तक नहीं थे, परंतु अब पैसे की कमी नहीं थी। हर मास पहली तारीख को सभा के मंत्री के नाम पर एक रजिस्ट्री आ जाती थी, जिसमें दो सौ रुपए के नोट होते थे। भेजने वाले के नाम के स्थान पर 'भारत दास' लिखा होता था। भेजने का स्थान कभी कोई होता और कभी कोई, किंतु अधिकांश अवसरों में किसी तीर्थस्थान की मुहर होती। नोटों के साथ एक पत्र रहता था, जिसमें लिखा रहता था कि रुपया किस प्रकार खर्च किया जाए। पहले पत्र में लिखा था कि इस रुपए से स्वराज्य की व्यवस्था पर छोटे-छोटे ट्रैक्ट निकाले जाएँ और उन्हें सभा में लागत भाव पर बेचे और गरीबों को मुफ्त बाँटें। दूसरे मास के पत्र में लिखा था कि इस रुपए से जिले के गाँवों में स्वराज्य के भाव का प्रचार किया जाए।

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