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प्रेमचन्द की कहानियाँ 39

प्रेमचंद

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :202
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9800
आईएसबीएन :9781613015377

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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का उन्तालीसवाँ भाग


तीसरे में लिखा था कि गाँव में स्वराज्य-वाचनालय स्थापित किया जाए और उनमें इस रुपए से पत्र मँगाये जाएँ। इसी प्रकार हर मास दो सौ रुपए की रक़म आती। इन रक़मों से सभा का काम खूब बढ़ा। देश की अन्य सभाओं में इस स्वराज्य-सभा का काम अनुकरणीय माना जाने लगा। इस गुप्त सहायता से सभा के कार्यकर्ता बहुत प्रसन्न थे, परंतु वे दाता का ठीक नाम और पता जानने के लिए बहुत उत्सुक थे। उन्होंने बहुत कोशिश की कि कुछ पता चले, परंतु वे विफल हुए।

कलकत्ता के एक दैनिक पत्र में ग़रीब देशवासियों की दशा और उनकी उन्नति के विषय में एक बड़ी ही मार्मिक लेखमाला निकल रही है। उसके भाव इतने सरल और सरस थे, उसकी भाषा इतनी सजीव और हृदयग्राहिणी थी, गरीब देशवासियों का ऐसा सजीव और करुणाजनक चित्र खींचा गया था और उनकी उन्नति का संदेश पहुँचाने का ऐसा साधु और मधुर ढंग बताया गया था कि पढ़ने वाले के हृदय पर लेखक और उसके भावों के विजय की छाप लग जाती थी।

लेखक के नाम के स्थान पर लिखा रहता था- 'भारतदास'। नगर की स्वराज्य-सभा वालों ने इस लेखमाला को पढ़ते हुए उस पत्र में एक निवेदन छपने के लिए भेज दिया कि कृपा करके 'भारतदास' महाशय अपना ठिकाना प्रकट कर दें। एक सप्ताह के पश्चात् सभा के मंत्री को पाँच सौ रुपयों का नोट मिला। साथ ही चिट्ठी भी थी। लिखा था- ''मेरा ठिकाना बहुत बड़ा है। देश के झोपड़े-झोपड़े में मेरी आत्मा वास करती है। इस धन से देश के झोपड़ों में जाकर कुछ स्वराज्य का संदेश पहुँचाओ और समझो कि मुझसे मिल रहे हो।''

नगर की स्वराज्य-सभा के सामने आज एक बड़ी ही कठिन समस्या उपस्थित है। लोकमान्य तिलक लखनऊ की कांग्रेस से लौटते समय नगर के स्टेशन से गुजरने वाले थे। कांग्रेस के अवसर पर नगर की स्वराज्य-सभा के कुछ लोगों ने मिलकर उन्हें अपने यहाँ निमंत्रित किया। उन्होंने निमंत्रण स्वीकार भी कर लिया। कल वे दोपहर को आने वाले हैं। इसी संध्या को उनका एक व्याख्यान हो जाना चाहिए, क्योंकि रात को वे पूना के लिए रवाना हो जाएँगे।

लोग तिलक महाराज को निमंत्रण देने को तो दे आए थे, परंतु उन्हें मालूम नहीं था कि आगे चलकर क्या-क्या दिक्कतें पड़ेगी। इस समय तिलक महाराज के ठहराने के लिए स्थान की चिंता थी। लोग उनको अपने यहाँ ठहराते डरते थे। बेचारे दयानाथ नगर-भर के बड़े-बड़े आदमियों से मिलते फिरे।

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