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प्रेमचन्द की कहानियाँ 39

प्रेमचंद

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :202
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9800
आईएसबीएन :9781613015377

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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का उन्तालीसवाँ भाग


मगर दयाकृष्ण के स्वभाव में अब वह संयम नहीं है। विलासिता का जादू उस पर भी चलता हुआ मालूम होता है। माधुरी के घर उसका आना-जाना भी शुरू हो गया है। वह सिंगारसिंह का मित्र नहीं रहा, प्रतिद्वंद्वी हो गया है। दोनों एक ही प्रतिमा के उपासक हैं; मगर उनकी उपासना में अंतर है। सिंगार की दृष्टि में माधुरी केवल विलास की एक वस्तु है, केवल विनोद का एक यंत्र। दयाकृष्ण विनय की मूर्ति है, जो माधुरी की सेवा में ही प्रसन्न है। सिंगार माधुरी के हास-विलास को अपना जरखरीद हक़ समझता है, दयाकृष्ण इसी में संतुष्ट है कि माधुरी उसकी सेवाओं को स्वीकार करती है। माधुरी की ओर से जरा भी अरुचि देखकर वह उसी तरह बिगड़ जाएगा, जैसे अपनी प्यारी घोड़ी की मुँहजोरी पर। दयाकृष्ण अपने को उसकी कृपा-दृष्टि के योग्य ही नहीं समझता। सिंगार जो कुछ माधुरी को देता है, गर्व भरे आत्म-प्रदर्शन के साथ, मानो उस पर कोई एहसान कर रहा हो। दयाकृष्ण के पास देने को है ही क्या; पर वह जो कुछ भेंट करता है, वह ऐसी श्रद्धा से, मानो देवता को फूल चढ़ाता हो। सिंगार का आसक्त मन माधुरी को अपने पिंजरे में वंद रखना चाहता है, जिसमें उस पर किसी की निगाह न पड़े। दयाकृष्ण निर्लिप्त भाव से उसकी स्वच्छंद क्रीड़ा का आनंद उठाता है।

माधुरी को अब तक जितने आदमियों से साबिका पड़ा था, वे सब सिगारसिंह की ही भाँति कामुक, ईर्ष्यालु, दंभी और कोमल भावों से शून्य थे, रूप को भोग की वस्तु समझने वाले। दयाकृष्ण उन सबों से अलग था, सहृदय, भद्र और सेवा-शील, मानो उस पर अपनी आत्मा का समर्पण कर देना चाहता हो। माधुरी को अब अपने जीवन में कोई ऐसा पदार्थ मिल गया है, जिसे वह वड़ी एहतियात से सँभालकर रखना चाहती है। जड़ाऊ गहने अब उसकी आँखों में उतने मूल्यवान् नहीं रहे, जितनी यह फ़क़ीर की दी हुई ताबीज़। जड़ाऊ गहने हमेशा मिलेंगे, यह ताबीज़ खो गई तो फिर शायद ही कभी हाथ आए। जड़ाऊ गहने केवल उसकी विलास-प्रवृति को उत्तेजित करते हैं; पर इस ताबीज़ में तो कोई दैवी शक्ति है, जो न जाने कैसे उसमें सदनुराग और परिष्कार भावना को जगाती है। दयाकृष्ण कभी प्रेम-प्रदर्शन नहीं करता, अपनी विरह-व्यथा के राग नहीं अलापता पर माधुरी को उस पर पूरा विश्वास है। सिंगारसिंह के प्रलाप में उसे बनावट और दिखावे का आभास होता है। वह चाहती है, यह जल्दी यहाँ से टले; लेकिन दयाकृष्ण के संयत भापण में उसे गहराई तथा गांभीर्य और गुरुत्व का उमभास होता है। औरों की वह प्रेमिका है; लेकिन दयाकृष्ण की आशिक़, जिसके क़दमों की आहट पाकर उसके अंदर एक तूफ़ान उठने लगता है। उसके जीवन में यह नई अनुभूति है। अब तक वह टूसरों के भोग की वस्तु थी, अब कम-से-कम एक प्राणी की दृष्टि में वह आदर और प्रेम की वस्तु है।

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